________________ (निरयावलिआओ) तथा उत्तराध्ययनादि आते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (जम्बूद्दीवपण्णत्ति), चन्द्रप्रज्ञप्ति (चंदपण्णत्ति) तथा सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरपण्णत्ति), गणितानुयोग विषयक हैं। सूत्रकृताङ्ग (सूयगडाङ्ग) स्थानाङ्ग (ठाणाङ्ग), (समवायाङ्ग), भगवती (विवाहपण्णत्ति), (जीवाभिगम), प्रज्ञापना (पण्णवणा), नन्दी तथा अनुयोगद्वार द्रव्यानुयोग का प्रतिपादन करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में धर्म-कथानुयोग का वर्णन है। अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरक के अन्तिम भाग में चम्पा नाम की नगरी थी। उसके बाहर ईशान कोण में पूर्णभद्र नाम का चैत्य था। इन दोनों का वर्णन औपपातिक सूत्र के समान समझ लेना चाहिए। काल वह द्रव्य है जिसके कारण दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि का व्यवहार होता है अथवा समयों के समूह का नाम काल है और समय काल के अविभाज्य अंश को कहते हैं। पूर्णभद्र यक्ष के आयतन के कारण उक्त उद्यान का नाम पूर्णभद्र प्रसिद्ध हो गया। जम्बू स्वामी का प्रश्न और प्रस्तुत सूत्र का निर्देशमूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज सुहम्मे समोसरिए, जाव जम्बू पज्जुवासमाणे एवं वयासी “जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स नायाधम्मकहाणं अयमढे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भंते ! अंगस्स उवासगदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ?". एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा—आणंदे 1, कामदेवे य 2, गाहावइचुलणीपिया 3, सुरादेवे 4, चुल्लसयए 5, गाहावइकुंडकोलिए 6, सद्दालपुत्ते 7,. महासयए 8, नंदिणीपिया 6, सालिहीपिया 10 / जइ णं, भंते ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? // 2 // छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मा समवसृतः। यावत् जम्बूः पर्युपासीनः एवमवादीत्—यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सम्प्राप्तेन षष्ठस्य अंगस्य ज्ञाताधर्मकथानाम् अयमर्थः प्रज्ञप्तः सप्तमस्य खलु भदन्त ! अंगस्य उपासकदशानां श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन सप्तमस्य अंगस्य उपासकदशानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि / तद्यथा—आनन्दः, कामदेवश्च, गाथापतिश्चुलिनीपिता, सुरादेवः, चुल्लशतकः, गाथापति कुण्डकौलिकः, सद्दालपुत्रः, महाशतकः, नन्दिनीपिता, शालिहीपिता च। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 72 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन