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________________ प्राणव्यपरोपणं हिंसा।" इस व्याख्या के दो भाग हैं, पहला भाग है—“ प्रमत्तयोगात् / ' योग का अर्थ है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति / प्रमत्त का अर्थ है—प्रमाद से युक्त / प्रमाद पांच हैं 1. मद्य—अर्थात् ऐसी वस्तुएं जिनसे मनुष्य की विवेक शक्ति कुण्ठित हो जाती है। 2. विषय-रूप, रस, गन्ध आदि इन्द्रियों के विषय, जिनके आकर्षण में पड़कर मनुष्य अपने हिताहित को भूल जाता है। 3. कषाय—क्रोध, मान, माया और लोभ आदि मनोवेग जो मनुष्य को पागल बना देते हैं। 4. निद्रा-आलस्य या अकर्मण्यता। 5. विकथा स्त्रियों के सौन्दर्य, देश-विदेश की घटनाएं, भोजन सम्बन्धी स्वाद तथा राजकीय उथल-पुथल आदि के सम्बन्ध में व्यर्थ की चर्चाएं करते रहना। प्रमाद की अवस्था में मन, वचन और शरीर की ऐसी प्रवृत्ति करना जिससे दूसरे के प्राणों पर आघात पहुंचे यह हिंसा है। इसका अर्थ है यदि गृहस्थ हित बुद्धि से प्रेरित होकर कोई कार्य करता है और उससे दूसरे को कष्ट पहुंचता है तो वह हिंसा नहीं है। उपरोक्त व्याख्या में 'प्राण' शब्द अत्यन्त व्यापक है। जैन शास्त्रों में प्राण के दस भेद हैं, पांच इन्द्रियों के पांच प्राण हैं, मन, वचन, काया के तीन, श्वासोच्छ्वास और आयु। इनका व्यपरोपण दो प्रकार से होता है, आघात द्वारा तथा प्रतिबन्ध द्वारा / दूसरे को ऐसी चोट पहुंचाना जिससे देखना या सुनना बन्द हो जाए आघात है। उसकी स्वतंत्र प्रवृत्तियों में बाधा डालना प्रतिबन्ध है। दूसरे के स्वतंत्र चिन्तन, भाषण अथवा यातायात में रुकावट डालना भी प्रतिबन्ध के अन्तर्गत है और हिंसा है। दूसरे की खुली हवा को रोकना, उसे दूषित करना, श्वासोच्छ्वास पर प्रतिबन्ध है। ' यहां यह प्रश्न होता है कि जहां एक नागरिक अपनी स्वतन्त्र प्रवृत्तियों के कारण दूसरे नागरिक के रहन-सहन एवं सुख-सुविधा में बाधा डालता है, उसके वैयक्तिक जीवन में हस्तक्षेप करता है, चोरी, डकैती तथा अन्य अपराधों द्वारा शान्ति भंग करता है क्या उस पर नियंत्रण करना आवश्यक है? यहीं साधु और श्रावक की चर्या में अन्तर हो जाता है। साधु किसी पर हिंसात्मक नियंत्रण नहीं करता, वह अपराधी को भी उसके कल्याण की बुद्धि से उपदेश द्वारा समझाता है, उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहता। इसके विपरीत श्रावक को इस बात की छट रहती है कि.वह अपराधी को दण्ड दे सकता है। नागरिक जीवन में बाधा डालने वाले पर यथोचित नियन्त्रण रख सकता है। साधु और श्रावक की अहिंसा में एक बात का अन्तर और है। जैन धर्म के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु तथा वनस्पतियों में भी जीव हैं और उन्हें स्थावर कहा गया है। दूसरी ओर, चलने वाले जीवों को त्रस कहा गया है। साधु अपने लिए भोजन बनाना, पकाना, मकान बनाना, आदि कोई प्रवृत्ति नहीं करता, वह भिक्षा पर निर्वाह करता है। इसके विपरीत श्रावक अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए मर्यादित रूप में श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 52 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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