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________________ भवभावना में भी चमड़े के सिक्के का उल्लेख आया है। वहां बताया गया है कि यह सिक्का नन्द-साम्राज्य में प्रचलित था। दम्र शब्द ग्रीक भाषा के द्रम शब्द से बना है। ई. पू. 200 से लेकर ई. पश्चात् -200 तक उत्तर पश्चिमी भारत में ग्रीस निवासियों का राज्य था। 12. दीनार—यह सोने का होता था और पूर्व में प्रचलित था। यह सिक्का रोम निवासियों से लिया गया है। भारत में इसका प्रचार प्रथम ई. में कुशान में हुआ। 13. केवडिग—यह भी सोने का होता था और पूर्व में प्रचलित था। 14. सामरक यह चान्दी का होता था और उत्तरापथ में अठन्नी के बराबर था। उत्तरापथ के दो सिक्के पाटलीपुत्र के एक सिक्के के बराबर होते थे। दक्षिणापथ के दो रुपए कांची के एक नेला के समान होते थे। कांची के दो सिक्के कुसुम नगर अर्थात् पाटलिपुत्र के एक सिक्के के समान होते थे। सत्थवाह-सार्थवाह (अ. 1 सू. 5) / . उन दिनों यात्रा इतनी सरल नहीं थी जितनी आजकल है। मार्ग उबड़-खाबड़ थे, बीच में कहीं नदियां, कहीं पर्वत और कहीं भयंकर वन आ जाते थे। जंगली पशुओं और डाकुओं का भय बना रहता था। अतः विकंट मार्गों को पार करने के लिए व्यापारी इकट्ठे होकर चलते थे। उनके इस काफिले को सार्थ कहा जाता था और उसके संचालक को 'सार्थवाह' / सार्थवाह प्रायः राज्य का उच्चाधिकारी या राजमान्य सामन्त होता था। शस्त्रविद्या तथा शासन व्यवस्था का पर्याप्त अनुभव रखता था। यात्रा से पहले वह नगर में घोषणा कर देता था कि अमुक तिथि को अमुक नगर के लिए सार्थ प्रस्थान करेगा। मार्ग में भोजन, पानी, वस्त्र निवास, औषध तथा सुरक्षा की निःशुल्क व्यवस्था की जाएगी। घोषणा के उत्तर में सैकड़ों व्यापारी बैलगाड़ियों या बैलों पर अपना-अपना सौदा लादकर विदेशों में व्यापार के लिए चल पड़ते थे। सार्थवाह का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा आदर प्राप्त था। वह पथ-प्रदर्शक, संकटों का निवारक तथा लक्ष्य-प्राप्ति में परम सहायक माना जाता था। उसी की उपमा पर भगवान महावीर को महासार्थवाह कहा गया है जो चतुर्विध-सङ्घ रूपी सार्थ को संसार रूपी भयङ्कर वन से पार ले जाते हैं और संकटों से बचाते हुए मोक्ष रूपी नगर में पहुंचाते हैं। / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 365 / परिशिष्ट
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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