________________ आहार प्राप्त हो जाने पर वापिस लौट आऊंगा। इस वृत्ति को गोमूत्रिका कहा गया है अर्थात् जहां चलते हुए बैल के मूत्र के समान एक बार इधर और एक बार उधर जाना होता है। गृह-समुदान चर्या / में एक ओर के प्रत्येक घर से भिक्षा ली जाती है। बीच में किसी को नहीं छोड़ा जाता। चुल्लहिमवंत—जैन भूगोल के अनुसार पृथ्वी के मध्य में जम्बूद्वीप है जो लवणसमुद्र से घिरा हुआ है। जम्बूद्वीप के बीच मेरु पर्वत है। उसके दक्षिण तथा उत्तर में सात-सात वर्ष या देश हैं। इनका विभाजन वर्षधर पर्वत करता है। चुल्ल हिमवान् का अर्थ है छोटा हिमालय / यह भरत क्षेत्र या भारतवर्ष के उत्तर में है। चेइअ—इसका संस्कृत रूप चैत्य है। वैदिक काल में 'इष्टक चितम्' शब्द का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ है 'ईंटों से बना हुआ चबूतरा' जो यज्ञ की वेदी के रूप में बनाया जाता था। यहां चित्त शब्द चिञ् चयने धातु से बना है जिसका अर्थ है चिना हुआ। चिता शब्द भी इसी धातु से बना है। चिता के ऊपर निर्मित स्तूप या छतरी आदि को चैत्य कहा गया है। प्राचीन प्रथा के अनुसार ऐसे स्थानों पर किसी यक्ष की मूर्ति भी स्थापित कर दी जाती थी और नगर के समृद्ध व्यक्ति उसके चारों ओर उद्यान बना देते थे। इन सबको प्राचीन साहित्य में चैत्य कहा गया है। संस्कृत में 'चिती संज्ञाने' धातु भी है। इससे चित्त ,या चित शब्द बनता है। चित का अर्थ है, शुद्ध चेतन स्वरूप आत्मा और चित्त का अर्थ है मन या बुद्धि / चित से सम्बन्ध रखने वाले तत्त्व को भी चैत्य कहा जा सकता है अर्थात् आत्मा के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य को भी चैत्य कहा जा सकता है। तलवर–तल शब्द का अर्थ है खड्ग-मुष्टि अर्थात् तलवार की मूठ। तलवर का अर्थ है राजा का अङ्ग रक्षक। संभवतया तलवर शब्द इसी से बिगड़कर बना हो / प्रारम्भ में इसका अर्थ था वह चिन्ह जिसे प्रतिष्ठा के रूप में राज-दरबारी धारण किया करते थे। बाद में यही खड्ग के अर्थ में रूढ़ हो गया। अब भी पंजाब में क्षत्रियों की 'तलवार' नामक जाति है। प्रतीत होता है उनके पूर्वजों को यह उपाधि राज-दरबार में सम्मान के रूप में प्राप्त हुई थी, किन्तु बाद में जाति वाचक बन गई। 'दीवान' आदि जातियां इसी तथ्य को सिद्ध करती हैं। दुविहं तिविहेणं इसका अर्थ है दो करण, तीन योग। जैन धर्म में त्याग का जितना सूक्ष्म विवेचनं है उतना अन्यत्र नहीं मिलता। श्रावक तथा साधु दोनों के लिए अनेक प्रकार के व्रत, नियम एवं त्यागों का विधान है। और उनकी बहुत सी कोटियां हैं। उदाहरण के रूप में एक व्यक्ति यह नियम करता है कि वह अमुक कार्य स्वयं नहीं करेगा किन्तु दूसरे से कराने की छूट रखता है। इसी प्रकार दूसरा व्यक्ति यदि उसे अपनी इच्छा से करता है तो वह उसकी निन्दा नहीं करता प्रत्युत अनुमोदन कर सकता है। इस दृष्टि से जैन शास्त्रों में त्याग के 46 भेद बताए गए हैं। करना, कराना श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 387 / परिशिष्ट