________________ यक्ष-पूजा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। अब भी प्राचीन नगरों के प्रवेश-द्वारों पर यक्षायतन या मन्दिर मिलते हैं। जैन मन्दिरों में भी प्रवेश द्वार पर रक्षक के रूप यक्ष एवं यक्षिणी की मूर्ति बनाई जाती है। भारतीय संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति तथा अन्य कलाओं का विकास यक्ष एवं यक्षणियों को लक्ष्य बनाकर हुआ है। कालिदास के मेघदूत नामक गीतिकाव्य का नायक एक यक्ष ही है। जहां एक यक्ष तथा यक्षणी के प्रेम का चित्रण किया गया है। आजकल जो स्थान मनोरंजनगृहों (क्लबों) का है, प्राचीन समय में वही स्थान यक्षायतनों का था। वहां लोग इकट्ठे होकर संगीत, नृत्य, मल्लयुद्ध, जादूगरी तथा अन्य प्रकार से मनोरञ्जन करते थे। 'यक्ष' शब्द का अर्थ है—देदिप्यमान या चमकती हुई आकृति। केनोपनिषद् में इसका यही अर्थ आया है। यह शब्द संस्कृत यज् धातु से बना है जिसके तीन अर्थ हैं—(क) देव पूजा, (ख) संगतिकरण, (ग) और दान / यक्षायतनों के मुख्यतया दो कार्य होते थे—देव पूजा और संगति अर्थात् मेला। जैन साहित्य में मुख्यतया दो यक्षों का वर्णन मिलता है—मणिभद्र और पूर्णभद्र। उववाइय सूत्र में पूर्णभद्र के चैत्य का निम्नलिखित वर्णन आया है— उस पर छत्र बना हुआ था। विशाल घंटे लटक रहे थे। ध्वजाएं फहरा रही थीं और वह मयूर पंखों से सुशोभित था। उसके चारों ओर छज्जे थे। आंगन गोबर से लिपा हुआ था। दीवारों पर सफेदी की हुई थी। उस पर रक्त (गो शीर्ष) तथा श्वेत चन्दन द्वारा हाथों की छापें लगी हुई थीं। उसके द्वार पर चन्दन कलश वाले तोरण लटक रहे थे। अन्य स्थानों पर भी चन्दनघट सुशोभित थे। आंगन में सुगन्धित जल छिड़का जाता था और द्वारों पर पुष्प मालाएं लटक रही थीं। भिन्न-भिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्प लगे हुए थे। अभिनेता, नर्तक, नट, पहलवान, मुष्टिक, योद्धा, नकलची, सूत (वीरगाथाएं गाने वाले), कथावाचक, बांस पर नाचने वाले, चित्र प्रदर्शक, तूती बजाने वाले, मुरली बजाने वाले तथा वीणा आदि बजाने वाले वहां सम्मिलित होते रहते थे। बहुत से लोग मन्दिर में पूजा करने भी आते थे। उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि यक्षपूजा मनोरंजन एवं लौकिक सुख के लिए साधारण जनता में प्रचलित थी। इसी दृष्टि से यक्षायतन बनाए जाते थे। आत्म-साधना में उनका कोई स्थान नहीं था। संख—(शङ्ख) अ. 2 सू. 116 श्रावक का वर्णन भगवती सूत्र में इस प्रकार है-श्रावस्ती नगरी में अनेक श्रमणोपासक रहते थे। वहीं शंख तथा पुष्कली नामक श्रमणोपासक भी थे। शंख की श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 382 / परिशिष्ट