________________ भावार्थ शुभ अध्यवसायों के कारण महाशतक की आत्मा उत्तरोत्तर शुद्ध होती गई और ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। परिणाम स्वरूप वह पूर्व दिशा में लवण समुद्र के अन्दर एक-एक हजार योजन तक जानने-देखने लगा। इसी प्रकार दक्षिण तथा पश्चिम दिशा में भी एक-एक हजार योजन तक जानने और देखने लगा, तथा उत्तर दिशा में चुल्लहिमवान् पर्वत तक देखने लगा। अधोदिशा में रत्नप्रभा पृथ्वी के अन्दर लोलुपाच्युत नरक तक देखने लगा। जहां जीवों की चौरासी हजार वर्ष की आयु है। रेवती का पुनः आगमन और उपद्रव करनामूलम् तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ मत्ता जाव उत्तरिज्जयं विकड्ढेमाणी 2 जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासययं तहेव भणइ, जाव दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी—“हं भो!" तहेव // 254 // छाया–ततः खलु सा रेवती गाथापली अन्यदा कदाचिन्मत्ता यावदुत्तरीयकं विकर्षयन्ती 2 येनैव महाशतकः श्रमणोपासको येनैव पौषधशाला तेनैवोपागच्छति, उपागत्य महाशतकं तथैव भणति यावद् द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमवादीत् “हंभो'! तथैव / शब्दार्थ तए णं सा रेवई गाहावइणी तदनन्तर वह रेवती गाथापली, अन्नया कयाइ–एक दिन, मत्ता—मत्तवाली होकर, जाव—यावत्, उत्तरिज्जयं विकड्ढेमाणी २–उत्तरीय वस्त्र को गिराती हुई, जेणेव महासयए समणोवासए—जहां महाशतक श्रमणोपासक था, जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ—जहां पौषधशाला थी वहां आई, उवागच्छित्ता–आकर, महासययं तहेव भणइ–महाशतक श्रमणोपासक को उसी प्रकार कहने लगी, जाव—यावत्, दोच्चंपि तच्चंपि-द्वितीय और तृतीय बार, एवं वयासी इस प्रकार बोली, हं भो! तहेव हे महाशतक! तथैव पहले की तरह कहा। भावार्थ-फिर एक दिन रेवती गाथापत्नी उन्मत्त होकर ओढ़ने को नीचे गिराती हुई, महाशतक श्रावक के पास आई और दूसरी तथा तीसरी बार उसी प्रकार बोली। मूलम् तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते 4 ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी-"हं भो रेवई! अपत्थिय-पत्थिए 4 एवं खलु तुमं अंतो सत्त-रत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 344 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन