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________________ आनन्द श्रमणोपासक ने किया था, तहेव—उसी प्रकार, अपच्छिममारणंतिय-संलेहणाए झूसियसरीरेइसने भी अन्तिम मारणान्तिक संलेखना के द्वारा शरीर का परित्याग करके, भत्तपाणपडियाइक्खिएभक्तपान का प्रत्याख्यान करके, कालं अणवकंखमाणे विहरइ–मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर विचरने लगा। ___ भावार्थ एक दिन अर्धरात्रि के समय धर्म जागरण करते हुए महाशतक के मन में विचार आया कि इस उग्र तपश्चरण के कारण मैं कृश हो गया हूं। नसें दिखाई देने लगी हैं। अब यही उचित है कि अन्तिम मारणान्तिक संलेखना अङ्गीकार कर लूं और शुभ विचारों के साथ शरीर का परित्याग करूं / यह विचार करके महाशतक ने भी आनन्द के समान अन्तिम संलेखना व्रत ले लिया और जीवन तथा मृत्यु दोनों की आकांक्षा से रहित होकर आत्म-चिन्तन में लीन रहने लगा। * महाशतक को अवधिज्ञानमूलम् तए णं . तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेणं जाव खओवसमेणं ओहिणाणे समुप्पन्ने पुरथिमेणं लवणसमुद्दे जोयण-साहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्ल-हिमवंतं वासहर-पव्वयं जाणइ पासइ, अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइ-वास-सहस्स-ट्ठिइयं जाणइ पासइ // 253 // छाया-ततः खलु : तस्य महाशतकस्य श्रमणोपासकस्य शुभेनाऽध्यवसायेन यावत् क्षयोपशमेनावधिज्ञानं समुत्पन्नम्—पौरस्त्ये खलु लवणसमुद्रे योजनसाहनिक क्षेत्रं जानाति पश्यति, एवं दाक्षिणात्ये खलु, पाश्चात्ये खलु, औत्तरे खलु यावत्क्षुद्रहिमवन्तं वर्षधरं पर्वतं जानाति पश्यति, अधोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां लोलुपाच्युतं नरकं चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिकं जानाति पश्यति / शब्दार्थ तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स–तदनन्तर उस महाशतक श्रमणोपासक को, सुभेणं अज्झवसाणेणं शुभ परिणामों के उत्पन्न होने पर, जाव—यावत्, खओवसमेणंअविधज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर, ओहिणाणे समुप्पन्ने–अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया, पुरथिमेणं लवणसमुद्दे पूर्व दिशा में लवण समुद्र के अन्दर, जोयणसाहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ—वह एक हजार योजन क्षेत्र को जानने और देखने लगा, एवं दक्खिणेणं—इसी प्रकार दक्षिण दिशा में, पच्चत्थिमेणं तथा पश्चिम दिशा में एक हजार योजन क्षेत्र को जानने देखने लगा, उत्तरेणं जाव–उत्तर दिशा में यावत्, चुल्लहिमवंतं वासहर-पव्वयं जाणइ पासइ-चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत तक जानने तथा देखने लगा, अहे-नीची दिशा में, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए—इस रत्नप्रभा पृथ्वी के, लोलुयच्चुयं नरयं—लोलुपाच्युत नरकावास को, चउरासीइवाससहस्स-ट्ठिइयं जहां 84 हजार वर्ष की आयु मर्यादा है, जाणइ पासइ–जानने देखने लगा। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 343 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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