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________________ किं खलु तव देवानुप्रिय! धर्मेण वा? पुण्येन वा? स्वर्गेण वा? मोक्षेण वा? यत्खलु त्वं मया सार्द्धमुदारान् यावद् भुजानो नो विहरसि? शब्दार्थ-तए णं सा रेवई गाहावइणी—तदनन्तर वह रेवती गाथापली, मत्ता—मांस, सुरा आदि से मत्त बनी हुई, लुलिया लोलुप, विइण्णकेसी—बालों को बिखेरे हुए, उत्तरिज्जयं विकड्डमाणी २–उत्तरीय को फेंकती हुई काम-वासना से पीड़ित, जेणेव पोसहसाला—जहां पौषधशाला थी, जेणेव महासयए समणोवासए—जहां श्रमणोपासक महाशतक था, तेणेव उवागच्छइ—वहां आई, उवागच्छित्ता–आकर, मोहुम्माय जणणाई–मोह और उन्माद को उत्पन्न करने वाले, सिंगारियाई शृंगार भरे हाव-भाव कटाक्ष आदि, इत्थि-भावाइं स्त्री सम्बन्धि चेष्टाओं को, उवदंसेमाणी २–दिखाती हुई, महासययं समणोवासयं एवं वयासी–महाशतक श्रमणोपासक को इस प्रकार कहने लगी, हं भो महासयया! समणोवासया! हे महाशतक! श्रमणोपासक! तुम, धम्म-कामया! धर्म की कामना करते हो, पुण्ण-कामया!-पुण्य की कामना करते हो, सग्ग-कामया! स्वर्ग की कामना करते हो, मोक्ख-कामया ! मोक्ष की कामना करते हो, धम्मकंखिया! धर्म की आकांक्षा करते हो, धम्म-पिवासिया!-धर्म के प्यासे हो परन्तु, किण्णं तुब्नं देवाणुप्पिया! किन्तु हे देवानुप्रिय!, धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा—धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या मिलेगा?, जणं तुमं—जो तुम, मए सद्धिं मेरे साथ, उरालाइं जाव भुजमाणे नो विहरसि—इच्छापूर्वक भोग भोगना पसन्द नहीं करते? भावार्थ मांस तथा मदिरा में आसक्त और कामवासना से उन्मत्त होकर रेवती पौषधशाला में महाशतक के पास पहुंची। उसके बाल बिखरे हुए थे और साड़ी नीचे गिर रही थीं। वहां पहुंचकर वह हाव-भाव तथा श्रृङ्गारिक चेष्टाएं करती हुई महाशतक से बोली-“देवानुप्रिय! तुम मेरे साथ मन-माने भोगों का आनन्द ले रहे थे। उन्हें छोड़कर यहां चले आए और स्वर्ग तथा मोक्ष की कामना से धर्म और पुण्य का सञ्चय करने लगे। किन्तु स्वर्ग और मोक्ष में इससे बढ़कर क्या मिलेगा? धर्म और पुण्य का इससे बढ़कर और क्या फल है?" महाशतक का उसकी ओर ध्यान न देनामूलम् तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमद्वं नो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ॥२४७ // छाया-ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासको रेवत्या गाथापल्या एतमर्थं नो आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानंस्तूष्णीको धर्मध्यानोपगतो विहरति / शब्दार्थ तए णं से महासयए समणोवासए तदनन्तर उस महाशतक श्रमणोपासक ने, रेवईए गाहावइणीए रेवती गाथापत्नी की, एयमद्वं नो आढाइ नो परियाणाइ–इस बात का न तो सत्कार श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 340 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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