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________________ समान हों और सींग रंगे हुए हों, जंबूणयामय कलाव जोत्त पइविसिट्ठएहिं—कंठाभरण सुवर्णमय तथा रस्सियां सुनहरे तारों से मढी हुई हों, रययामयघंट सुत्त रज्जुग वरकंचण खइय नत्थापग्गहोग्गहियएहिं चांदी के घंटे सूत की डोरियों के साथ बंधे हुए तथा नकेल सुवर्ण से मढी हुए हों नीलुप्पल-कयामेलएहिं मस्तिष्क पर नीले कमल सजे हुए हों—पवरगोणजुवाणएहिं तथा किशोर आयु हों, ऐसे बैलों से युक्त, नाणामणिकणग घंटिया जाल परिगयं सुजाय जुग जुत्त उज्जुग पसत्थ सुविरइय निम्मियं नाना मणियों से मंडित और घंटियों से युक्त अच्छी लकड़ी के युग अर्थात् जुए वाले, पवरलक्खणोववेयं उत्तम लक्षणों से युक्त, धम्मियं जाण प्पवरं धर्म-क्रिया के योग्य श्रेष्ठ रथ को, उवट्ठवेह—उपस्थित करो। उवट्ठवित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह मेरी इस प्रकार की आज्ञा को पूरी करके मुझे सूचना दो। भावार्थ श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा- "हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही तेज चलने वाला रथ सजाओ। उसमें नई उमर के ऐसे उत्तम बैलों की जोड़ी जोतना, जिनके खुर तथा पूंछ एक ही रंग के हों। सींग विभिन्न रंगों से रंगे हुए हों। उनके गले में आभूषण पहनाना / नाक की (नकेल) रस्सियों को भी सुवर्ण के तागों से सुशोभित करना। मस्तक नीले कमलों से सजे हों। रथ नाना प्रकार की मणियों से मंडित हो। युग (जुआ) उत्तम लकड़ी का बना हुआ हो। बनावट समीचीन, ऋजु तथा प्रशस्त हो। धर्मक्रिया के लिए उपयुक्त ऐसे उत्तम रथ को उपस्थित करो और आज्ञा का पालन करके मुझे सूचना दो।" . मूलम् तए णं ते कोडुम्बिय-पुरिसा जाव पच्चप्पिणंति // 207 // छाया-ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत्प्रत्यर्पयन्ति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, ते कोडुम्बिय-पुरिसा जाव पच्चप्पिणंति—उन कौटुम्बिक-पुरुषोंसेवकों ने आज्ञा पालन करके सूचना दी। भावार्थ कौटुम्बिक-पुरुषों ने आज्ञा पूरी करके सद्दालपुत्र को सूचना दी। मूलम् तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया पहाया जाव पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाइं जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा धम्मियं-जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता पोलासपुरं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्सम्बवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडियाचक्कवालपरिवुडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे जाव पञ्जलिउडा ठिइया चेव पज्जुवासइ // 208 // श्री उपासक दश म् / 305 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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