________________ दिव्व माणुस तिरिक्ख जोणिए उवसग्गे देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को, सम्मं सहंति—सम्यक् प्रकार से सहन करते हैं, जाव अहियासेंति यावत् दृढ़ता से सहन करते हैं, सक्का पुणाई अज्जो हे आर्यो! पुनः शक्य ही है, समणेहिं निग्गंथेहिं श्रमण निर्ग्रन्थ, दुवालसंगं गणिपिडगं द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक को, अहिज्जमाणेहिं दिव्व माणुस्स तिरिक्खजोणिए उवसग्गे–अध्ययन करने वालों द्वारा देव, मनुष्य, तिर्यंच सम्बन्धित उपसर्गों का, सम्मं—सम्यक्तया, सहित्तए जाव अहियासित्तए सहन करना यावत् विचलित न होना। भावार्थ श्रमण भगवान महावीर ने निर्ग्रन्थ और निर्गथिनियों को आमन्त्रित करके इस प्रकार कहा हे आर्यो! यदि श्रमणोपासक गृहस्थ गृह में निवास करते हुए भी दिव्य-देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से सहन करते हैं यावत् दृढ़ रहते हैं, तो फिर श्रमण निर्ग्रन्थ और गणिपिटकरूप द्वादशाङ्ग का अध्ययन करने वालों को उपसर्गों का भली प्रकार सहन करना यावत् दृढ़ रहना क्यों शक्य नहीं? मूलम् तओ ते बहवे समणा निगंथा य निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स "तह" ति एयमढें विणएणं पडिसुणेति // 116 // छाया ततस्ते बहवः श्रमणाः निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तथेति' एतमर्थं विनयेन प्रतिशृण्वन्ति / शब्दार्थ तओ तदनन्तर, ते बहवे समणा निग्गंथा य निगंथींओ य—उन बहुसंख्यक श्रमणों अर्थात् साधु-साध्वियों ने, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान् महावीर के, तहत्ति तथेति हे भगवन्! यह इसी प्रकार है ऐसे कहते हुए, एयमटुं—इस वचन को, विणएणं पडिसुणेति-विनय पूर्वक अङ्गीकार किया। ____ भावार्थ श्रमण भगवान् महावीर के इस वचन को साधु तथा साध्वियों ने 'तथेति' कहकर विनय पूर्वक स्वीकार किया। टीका—भगवान् ने साधु तथा साध्वियों को सम्बोधित करते हुए कहा हे आर्यो! यदि श्रावक गृहस्थ में रहकर भी धर्म में इस प्रकार की दृढ़ता रख सकता है और मारणान्तिक कष्ट एवं असह्य वेदना होने पर भी अपनी साधना से विचलित नहीं होता तो आप सभी का क्या कर्त्तव्य है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। उपसर्ग एवं कष्टों के सहन करने से हमारी आत्मा उत्तरोत्तर दृढ़ एवं निर्मल होती है अतः उनका स्वागत करना चाहिए। ___ मूलम् तए णं से कामदेवे समणोवासए हट्ठ जाव समणं भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठमादियइ अट्ठमादिइत्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए // 120 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 230 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन ,