________________ प्रथम खण्ड से (प्रस्तावना (लेखक : डॉ० इंद्रचन्द्र शास्त्री), आगमों का संक्षिप्त परिचय किसी ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखते समय हमारे सामने उसके दो रूप आते हैं बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग। बहिरङ्ग रूप का अर्थ है उस ग्रन्थ के रचनाकाल, कर्त्ता, भाषा, एवं बाह्य आकार से सम्बन्ध रखने वाली अन्य बातों का निरूपण। उपासकदशाङ्ग सूत्र सातवां अङ्ग है और सभी अङ्ग श्री सुधर्मा स्वामी की रचना माने जाते हैं। उनका निरुपण प्रस्तावना के पहले खण्ड में किया जाएगा। ग्रन्थ का दूसरा रूप अन्तरङ्ग है। इसका अर्थ है उसमें प्रतिपादित विषयों का निरूपण | उपासकदशाङ्ग में दस आदर्श गृहस्थों का वर्णन है, जिन्हें श्रावक कहा जाता है। जैन धर्म में श्रावक का पद जीवन की उस भूमिका को प्रकट करता है जहां त्याग और भोग, स्वार्थ और परमार्थ, प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुन्दर समन्वय है, अतः समाज रचना की दृष्टि से इसका महत्वपूर्ण स्थान है। ___उपासकदशाङ्ग में ई. पू. 600 का सांस्कृतिक चित्र है। आनन्द का जीवन तत्कालीन वाणिज्य-व्यवसाय पर प्रकाश डालता है। राजा. ईश्वर, तलवर आदि नाम राज्याधिकारियों के परिचायक हैं। गोशालक का निर्देश धार्मिक स्थिति की ओर संकेत करता है। चम्पा, राजगृह आदि नगरियों तथा राजाओं के नाम मगध तथा आस-पास के जनपदों का भौगोलिक परिचय देते हैं। इन सबका निरूपण विविध परिशिष्टों में किया गया है। आदिकाल महावीर से पहले का साहित्य.''जैन-साहित्य का प्राचीनतम रूप चौदह पूर्व माने जाते हैं। उनका परिचय आगे दिया जाएगा। यद्यपि इस समय कोई पूर्व उपलब्ध नहीं है, फिर भी उस साहित्य में से उद्धृत या उस आधार पर रचे गए ग्रन्थ विपुल मात्रा में आज भी विद्यमान हैं। - पूर्वो की रचना का काल निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता। 'पूर्व' शब्द इस बात को सूचित करता है कि वे भगवान महावीर से पहले विद्यमान थे। भगवती सूत्र में जहां भगवान की परम्परा के साधुओं का वर्णन आता है, वहां उनके ग्यारह एवं बारह अङ्ग पढ़ने का उल्लेख है और जहां उनसे पूर्ववर्ती परम्परा वाले साधुओं का वर्णन आता है वहां ग्यारह अङ्ग तथा पूर्वो के अध्ययन का निर्देश है। जिनभद्र ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है कि साधारण बुद्धि के लोगों के लिए चौदह पूर्षों में से निकालकर अङ्गों की रचना की गई। इन सब प्रमाणों से यह | . श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 13 / प्रस्तावना