________________ उसी व्यक्ति की दृष्टि से है, जिसने सचित्त वस्तुओं का परित्याग या मर्यादा कर रखी है। इस पर टीकाकार के निम्नलिखित शब्द हैं—“सचित्तपडिबद्धाहारे' त्ति सचित्ते वृक्षादौ प्रतिबद्धस्य गुन्दादेरभ्यवहरणम्, अथवा सचित्ते—अस्थिके प्रतिबद्धंयत्पक्वमचतेनं खजूंरफलादि तस्य सास्थिकस्य कटाहमचेतनं भक्षयिष्यामीतरत्परिहरिष्यामि इति भावनया मुखे क्षेपणमिति, एतस्य चातिचारत्वं व्रतसापेक्षत्वादिति।" (3) अप्पउलिओसहि भक्खणया—(अपक्वौषधि भक्षणता) इसका अर्थ है कच्चे फल या थोड़े पके हुए चावल, चने (छोलिया) आदि खाना / यहां ओषधि के स्थान पर ओदन का पाठ भी मिलता है, ओदन पके हुए चावलों को कहते हैं। यहां इसका अर्थ होगा—कच्चे या आधे पके हुए चावल खाना। (4) दुप्पउलिओसहि-भक्खणया (दुष्पक्वौषधि भक्षणता) इसका अर्थ है देर में पकने वाली औषधियों को पकी जानकर कच्ची निकाल लेना और उनका सेवन करना। (5) तुच्छोसहि-भक्खणया (तुच्छौषधि भक्षणता) इसका अर्थ है ऐसी वस्तुओं को खाना जिनमें अधिक हिंसा होती हो, जैसे–चौलाई, खसखस आदि के दाने / ऊपर बताए गए पाँच अतिचार उपलक्षणमात्र हैं। श्रावक ने भोजन विषयक जो मर्यादा की है उनका असावधानी के कारण किसी प्रकार उल्लङ्घन होना, इस व्रत का अतिचार है। श्रावक के प्रायः रात्रि-भोजन का भी परित्याग होता है, अतः तत्सम्बन्धी अतिचार भी उपलक्षणत्वेन इसी में आ जाते हैं। यहां वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं—“इह च पञ्चातिचारा इत्युपलक्षणमात्रमेवावसेयं यतो मधुमद्य मांस रात्रिभोजनादि वतिनामनाभोगातिक्रमादिभिरनेके ते सम्भवन्तीति।" पन्द्रह कर्मादान—भोजन सम्बन्धी अतिचार बताने के पश्चात् शास्त्रकार ने कर्म सम्बन्धी अतिचार गिनाएं हैं। उनकी संख्या 15 है। ये ऐसे कर्म हैं जिनमें अत्यधिक हिंसा होती है, अतः वे श्रावक के लिए वर्जित हैं। कर्मादान शब्द का अर्थ है—ऐसे व्यापार जिनसे ज्ञानावरणादि कर्मों का प्रबल बन्ध होता है। टीकाकार ने लिखा है—कर्माणि-ज्ञानावरणादीन्यादीयन्तेयैस्तानि कर्मादानानि, अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च कर्मादानानि कर्महेतव इति विग्रहः।" इन कर्मादानों का सेवन श्रावक को न स्वयं करना चाहिए, न दूसरों से कराना चाहिए और न करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन-समर्थन ही करना चाहिए। इसके लिए भगवतीसूत्र में नीचे लिखे अनुसार कहा गया है “किमंग पुण जे इमे समणोवासगा भवंति, जेसिं नो कप्पंति इमाइं पन्नरस कम्मादाणाइं सयं करेत्तए वा कारवेत्तए वा अन्नं न समणुजाणेत्तए।" वे पन्द्रह कर्मादान निम्नलिखित हैं . श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 125 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन