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________________ से और चौथा. सामाजिक सदाचार से। यह व्रत दो प्रकार से अङ्गीकार किया जाता था—१. स्वदारसन्तोष के रूप में तथा 2. परदार विवर्जन के रूप में। स्वदारसन्तोष के रूप में ग्रहण करने वाला व्यक्ति अन्य समस्त स्त्रियों का परित्याग करता है और यह उत्तम कोटि का व्रत माना जाता है। द्वितीय अर्थात् परदार विवर्जन के रूप में ग्रहण करने वाला व्यक्ति दूसरे की विवाहिता स्त्री के साथ सम्पर्क न करने का निश्चय करता है। आनन्द ने इसे प्रथम अर्थात् स्वदार-सन्तोष के रूप में अङ्गीकार किया। इस व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं. (1) इत्तरियपरिग्गहियागमणे (इत्वरिकपरिगृहीतागमन) इसका अर्थ कई प्रकार से किया जाता है—(१) थोड़े समय के लिए. पत्नी के रूप में स्वीकार की गई स्त्री के साथ सहवास करना। (2) अल्पवयस्का पत्नी के साथ सहवास करना / * (3) इत्वरिक शब्द संस्कत की 'इण' गतौ धात से बना है। इसका अर्थ है—चला.जाने वाला, स्थायी न रहने वाला / गत्वर इसी का पर्याय है। यहाँ इत्वरिका या इत्वरी का अर्थ है जो स्त्री कुछ समय पश्चात् चली जाने वाली है। साथ ही परिगृहीता है अर्थात् जितनी देर रहेगी पत्नी मानी जाएगी और उस समय वह अन्य किसी के साथ सम्पर्क न रखेगी। प्रतीत होता है उन दिनों इस प्रकार की प्रथा रही होगी। आजकल भी बहुत से सम्पन्न व्यक्ति वेश्या, अभिनेत्री या किसी अन्य को कुछ काल के लिए अपने पास रख लेते हैं और उस समय उसका अन्य किसी के साथ सम्पर्क नहीं होता। यह भी व्रत का अतिचार है। (2) अपरिग्गहियागमणे (अपरिगृहीतागमन) अपरिगृहीता का अर्थ है—वह स्त्री जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। काव्यशास्त्र में तीन प्रकार की नायिकाओं का वर्णन है—(१) स्वीया अर्थात् अपनी विवाहिता स्त्री। (2) परकीया अर्थात् दूसरे की विवाहिता पत्नी और (3) सामान्या अर्थात् वेश्या आदि जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। यहाँ अपरिगृहीता शब्द से तृतीय प्रकार लिया गया है। (3) अणङ्गकीड़ा (अनंगक्रीड़ा) स्वाभाविक अङ्गों से काम न लेकर काम-क्रीड़ा के लिए चर्म, रंबर आदि के उपकरणों से काम लेना अथवा कामान्ध होकर मुखादि से विषय वासना को शान्त करना या किसी स्वजातीय से संभोग करना। यह अतिचार चरित्र की दृष्टि से रखा है, इससे व्यभिचार को पोषण मिलता है, अतः गृहस्थ के जीवन की दुष्प्रवृत्ति है। .. (4) परविवाहकरणे (परविवाह करण)-गृहस्थ में रहकर व्यक्ति को अपने परिवार के सदस्यों का विवाह-संस्कार करना ही पड़ता है, इसके लिए गृहस्थी को इसकी छूट है। परन्तु इतर लोगों के पूज्य श्री सोहनलालजी महाराज ने इसका अर्थ वाग्दत्ता के साथ सहवास करना भी किया है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 117 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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