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________________ अवशेषं माधुरकविधिं प्रत्याख्यामि। ___ शब्दार्थ तयाणंतरं च णं इसके अनन्तर, माहुरयविहि—माधुरकविधि का, परिमाणं करेइपरिमाण किया। एगेणं–एक, पालंगामाहुरएणं—पालंगा माधुर अर्थात् शल्लकी नामक वनस्पति के गोंद से बने हुए मधुरपेय विशेष के, नन्नत्थ—अतिरिक्त, अवसेसं—अन्य सब, माहुरयविहिं मीठे का, पच्चक्खामि प्रत्याख्यान करता हूं। भावार्थ तदनन्तर माधुरकविधि* का परिमाण किया और पालंगा माधुर के अतिरिक्त अन्य मीठे का प्रत्याख्यान किया। (16) जेमनविधि मूलम् तयाणंतरं च णं जेमणविहि परिमाणं करेइ। नन्नत्थ सेहंब दालियंबेहिं, अवसेसं जेमणविहिं पच्चक्खामि // 40 // छाया तदनन्तरं च खलु जेमनविधिपरिमाणं करोति। नान्यत्र सेधाम्लदालिकाम्लाभ्याम्, अवशेषं जेमनविधिं प्रत्याख्यामि। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं इसके अनन्तर, जेमणविहिपरिमाणं जेमनविधि का परिमाण, करेइ किया। सेहंब दालियंबेहिं सेधाम्ल-कांजी बड़े और दालिकाम्ल पकोड़े के, नन्नत्थअतिरिक्त, अवसेसं—अन्य सब, जेमणविहिं जेमनविधि का, पच्चक्खामि–प्रत्याख्यान करता हूं। भावार्थ इसके बाद जेमन अर्थात् व्यंजनविधि का परिमाण किया और सेधाम्ल तथा दालिकाम्ल के अतिरिक्त अन्य सब जेमन अर्थात् व्यंजनों का प्रत्याख्यान किया। ___टीका प्रस्तुत सूत्र में 'जेमण' शब्द से उन पदार्थों को लिया गया है जिन्हें प्रायः जिह्वास्वाद के लिए खाया जाता है। बोलचाल में इसे चाट कहते हैं। सेधाम्ल का अर्थ है—पकौड़े या बड़े, जिन्हें पकने के बाद खटाई में डाल दिया जाता है। साधारणतया इन्हें कांजी बड़े कहा जा सकता है। इनका सेवन आंवले की चटनी तथा अन्य खटाइयों के साथ भी किया जाता है। दालिकाम्ल वे पकौड़े हैं, जिन्हें तेल में तलकर खाया जाता है। खटाई इनके अन्दर ही रहती है। मारवाड़ में इन्हें दालिया कहा जाता है। इस पर वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं—“सेहंबदालियंबेहिं त्ति सेधे-सिद्धेसति यानि अम्लेन तीमनादिना संस्क्रियन्ते तानि सेधाम्लानि / यानि दाल्या मुद्गादिमय्या निष्पादितानि अम्लानि च तानि दालिकाम्लानीति सम्भाव्यन्ते।" अर्थात् जिन्हें पक जाने पर इमली आदि की खटाई में डाला जाता है उन्हें सेधाम्ल कहते हैं। तथा जो खटाई में डालकर मूंग आदि की दाल के बनाए जाते हैं उन्हें दालिकाम्ल कहते हैं। (20) पानीयविधि* माधुरिक शब्द का अर्थ है-गुड़, चीनी, मिश्री आदि वे वस्तुएं जिनके द्वारा अन्य वस्तुओं को मीठी बनाया जाता है। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 104 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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