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________________ (60) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध एक बार भगवन्त श्री महावीरस्वामी का विहार करते करते श्रावस्ती नगरी में आगमन हुआ। उस समय गोशालक भी 'मैं तीर्थंकर हूँ' ऐसा लोगों को कहते हुए श्रावस्ती आया। उस समय गौतमस्वामी गोचरी के लिए गये थे। वहाँ लोगों के मुख से ऐसा सुना कि आज नगरी में एक महावीरस्वामी और दूसरा गोशालक ये दो तीर्थंकर आये हैं। फिर संशयवंत हो कर श्री गौतमस्वामी ने भगवंत के पास जा कर गोशालक की उत्पत्ति के बारे में पूछा। तब प्रभु ने कहा कि शरवण गाँव का निवासी मंखली जो भरडा जाति का है और शनिश्चर का दान लेने वाला है। उसकी पत्नी सुभद्रा का यह पुत्र है। ब्राह्मण की गोशाला में इसका जन्म होने से मातापिता ने इसका नाम गोशालक रखा है। पूर्व में यह भिक्षा माँगता था। बाद में मेरे पास आ कर मेरा शिष्य बना। छद्मस्थावस्था में यह मेरे साथ छद्मस्थरूप में छह वर्ष तक रहा था। मेरे पास से सीख कर यह कुछ बहुश्रुत हुआ है। तेजोलेश्या भी सीखा है। दूसरी बात यह है कि दिशाचरों के पास से निमित्तविद्या सीख कर यह मिथ्या जिननाम धारण करता है। परन्तु यह तीर्थंकर नहीं है। ऐसी बात प्रभु से सुन कर श्री गौतमस्वामी ने अन्य बहुत से लोगों से यह बात कही कि गोशालक मंखलीपुत्र है। यह बात गोशालक के कानों तक पहुँची। तब वह क्रोधायमान हुआ। उस समय भगवंत का आनन्द नामक शिष्य गोचरी गया था। गोशालक ने उसे बुला कर कहा कि हे आनन्द ! मैं तुमसे एक दृष्टान्त कहता हूँ, सो सुनो।- . एक बार चार वणिक व्यापार करने के लिए विविध प्रकार के किराने की गाड़ियाँ भर कर परदेश चले। मार्ग में किसी महाअटवी में पैठे। वहाँ उन्हें प्यास लगी। उस वीराने में पानी की गवेषणा करने पर पानी तो कहीं दिखाई नहीं दिया, पर चार वल्मीक याने उदेही के शिखर दीख पड़े। उन पर हरे वृक्ष भी ऊगे हुए देखे। इससे उन्होंने जाना कि यहाँ अवश्य पानी होगा। ऐसा जान कर शिखर फोड़ा, तो उसमें से बहुत शीतल निर्मल जल निकला। सब ने जल पी कर अपनी प्यास बुझायी। तथा अन्य बर्तनों में भी
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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