SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (57) से पहले ही तू उखाड़ डालता था। इस प्रकार बहुत वर्ष बीतने के बाद पुनः एक बार बड़ा जंगी दावानल लगा। उस समय सब वनचर जीव आ कर उस मंडल में रहे। तू भी तत्काल वहाँ जा कर मंडल में रहा। मंडल इतना संकीर्ण हो गया कि उसमें तिल धरने जितना स्थान भी नहीं रहा। इतने में खाज खुजलाने के लिए तूने अपना पैर ऊँचा किया। उस पैर के स्थान पर निराली भूमिका देख कर एक खरगोश तेरे पैर के नीचे की भूमि पर आ बैठा। फिर पाँव नीचे रखते वक्त खरगोश को देख कर तुझे दया आ गयी, इसलिए तूने अपना पैर अधर रखा। ढाई दिन के बाद दावानल शान्त हुआ। तब खरगोशप्रमुख सब जीव अपने अपने स्थान पर चले गये। तेरे पैर में खून जम गया था। उसे नीचे रखते वक्त पर्वत के कूट की तरह तू नीचे गिर पड़ा। तीन दिन तक भूख-प्यास से पीड़ित होते हुए सौ साल की आयु भोग कर दयासहित मरण प्राप्त कर हे मेघकुमार ! तुम राजकुल में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी माता को अकाल में मेघवृष्टि का दोहद हुआ, इसलिए तुम्हारा नाम मेघकुमार रखा गया। जिस समय तुम्हें हाथियों ने मारा, उस समय तो तिर्यंच द्वारा दिया गया दुःख था। उस दुःख के आगे इन साधुओं के संघट्ट से तुम क्या दुःख मानते हो? यह दुःख तो कुछ भी नहीं है। फिर ये साधु तो जगवंद्य हैं। इनके चरण की रज तो पुण्यवान जीवों को ही लगती है। इसलिए साधु के पैर लगने से दुःख नहीं करना चाहिये। भगवान के ऐसे वचन सुन कर मेघकुमार को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उससे उसने अपने पूर्वभव देखे। फिर प्रभु के पाँव पड़ कर चारित्र में स्थिर हो कर उसने अभिग्रह लिया कि आज से मैं मेरी दो आँखों की सम्हाल रखूगा। उन्हें छोड़ कर शेष शरीर की शुश्रूषा चाहे जैसा संकट आये, तो भी नहीं करूँगा। ऐसा यावज्जीवपर्यन्त का अभिग्रह कर के निरतिचार शुद्ध चारित्र पालन कर अन्त में एक मास की संलेखना कर के कालधर्म प्राप्ति के पश्चात् वह विजय नामक अनुत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यव कर महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न हो कर वह मोक्ष प्राप्त करेगा। इसीलिए. भगवान को धर्मसारथी कहते हैं। . जैनाचार्य श्रीमद् भट्टारक विजय राजेन्द्रसूरीश्वर-संङ्कलिते श्री कल्पसूत्र-बालावबोधे प्रथमं व्याख्यानं समाप्तम्। % % %
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy