________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (43) लिए गया। वहाँ बख्तर-टोप पहन कर रथ में बैठ कर अचल को सारथी बना कर शस्त्र धारण कर सिंह की गुफा के पास गया। इतने में रथ की आवाज सुन कर सिंह भी गुफा से बाहर आ गया। उसे देख कर त्रिपृष्ठ ने विचार किया कि इस सिंह के पास रथ नहीं है, इसलिए मुझे भी रथ पर सवार हो कर लड़ना नहीं चाहिये तथा इसके पास शस्त्र और कवच नहीं हैं, इसलिए मुझे भी शस्त्र और कवच नहीं रखने चाहिये। फिर शस्त्र तथा कवच रथ में रख कर स्वयं रथ से नीचे उतर कर सिंह से कहने लगा कि अरे पशभक्षक ! उठ, खड़ा हो कर मेरे सामने आ। उसके इतना कहते ही तुरन्त वह सिंह भी उठा और मुँह फाड़ कर लड़ने के लिए सामने आया। जैसे ही वह सामने आया, वैसे ही त्रिपृष्ठ ने तुरन्त उसके होंठ पकड़ कर दो टुकड़े कर उसे चीर डाला। फिर भी उस सिंह का जीव निकलता नहीं था; तब त्रिपृष्ठ के सारथी ने सिंह से कहा- हे सिंह! जैसे त मृगराज है, वैसे ही तुझे मारने वाला भी नरराज है। अतः तुझे किसी साधारण मनुष्य ने नहीं मारा है। ऐसी बात सुन कर सिंह मर कर नरक में गया। फिर उस सिंह का कलेवर गाँव में ला कर लोगों के बीच में रख कर त्रिपृष्ठ ने कहा कि इस उपद्रवी सिंह को मैंने मार डाला है। इसलिए अब मेरे प्रभाव से अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव सुख-समाधिपूर्वक चावल खाये। यह बात लोगों के मुँह से सुन कर अश्वग्रीव को बड़ा क्रोध आया। इस कारण से अपनी सेना ले कर वह लड़ने के लिए आया; पर त्रिपृष्ठ के साथ युद्ध में मुकाबला करने में वह हर तरह से असमर्थ रहा। अतः उसने चक्र घुमा कर उस पर फेंका। वह चक्र भी त्रिपृष्ठ के हाथ में आ गया। फिर त्रिपृष्ठ ने वही चक्र अश्वग्रीव पर चलाया। उसने अश्वग्रीव का मस्तक काट कर त्रिपृष्ठ के आगे हाजिर किया। यह देख कर देवों ने आकाश में जय जय करते हुए घोषणा की कि भरतक्षेत्र में यह त्रिपृष्ठ नामक पहला वासुदेव हुआ है। फिर त्रिपृष्ठ ने अनुक्रम से तीन खंड जीत कर वासुदेव की राजलीला के सुखभोग प्राप्त किये।