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________________ (16) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध एक बार सेठ के घर में आग लगी। तब सेठानी ने पुत्र को सेठ को बलाने के लिए भेजा। पुत्र ने वहाँ जा कर देखा तो सेठ बहुत से लोगों के बीच में बैठे हुए थे। तब दूर खड़े रह कर वह धीमे-धीमे बोला। सेठ को कुछ भी सुनाई न दिया। बहुत देर के बाद सेठ ने उसे देखा। फिर उससे पूछा- 'अरे! तू यहाँ क्यों आया है?' तब सेठ के पास जा कर धीमे-धीमे सेठ के कान में कहने लगा- 'पिताजी! घर में आग लगी है।' यह सुन कर सेठ ने कहा- 'अरे मूर्ख! अब तक तो घर जल गया होगा। तू आते ही क्यों न बोला?' तब उसने कहा- 'आपने ही तो सिखाया था कि धीमेधीमे बोलना। इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। आपकी ही भूल है।' पिता ने कहा'अरे! तु इतना बड़ा हो गया, पर अभी तक तुझे अक्ल नहीं आई। जब धुआँ निकला तभी तुरन्त धूल डालनी थी। इससे आग बुझ जाती।' सेठ की यह बात लड़के ने गाँठ बाँध ली। ___ एक बार शीत ऋतु में सुबह के समय पिता दातुन कर रहे थे। उस समय उनके मुँह से धुआँ निकलने लगा। यह देख कर पुत्र ने अँजुली-भर धूल पिता के मुख में डाल दी। तब पिता के ध्यान में आ गया कि यह लड़का सचमुच मूर्ख है। एक दिन पिता ने उससे कहा- 'यह घोड़ा प्यासा है। इसे पानी पिलाना और नहला देना।' लड़के ने कहा- 'मैं दो काम तो नहीं करूंगा।' तब पिता ने कहा- 'तु इसे स्नान करा ला।' फिर वह लड़का घोड़े पर सवार हो कर तालाब पर गया। उसने घोड़े का मुख बाँध कर उसे नहलाया और फिर घर ले आया। घोड़ा प्यासा था, इसलिए वह आकुल-व्याकुल होने लगा। यह देख कर सेठ ने पुत्र को मूर्ख जान कर घर से निकाल दिया। उस समय उससे कहा कि रास्ते में यदि कोई मिले, तो उसे ऊँची आवाज में जुहार करना। लड़का आगे बढ़ा। जंगल में एक जगह पर एक शिकारी जाल बिछा कर बैठा था। आसपास कुछ हिरन चर रहे थे। उसने जोरदार आवाज में शिकारी को जुहार किया। उस आवाज से सब हिरन भाग गये। इस कारण से शिकारी ने उसे बहुत मारा। फिर मूर्ख जान कर उसे समझाया कि अरे पागल! रास्ते में लुकतेछिपते जाना। लड़का आगे बढ़ा। उस समय कोई एक कोटवाल किसी चोर की खोज में निकला था। उसने उसे छिपते हुए जाते देख कर चोर समझ कर पकड़ लिया और मारा-पीटा। फिर मूर्ख जान कर उससे कहा- 'बहुत से लोग दिखाई दें, तो उनसे कहना कि तुम्हारे लिए ऐसा कभी न हो।' लड़का फिर आगे बढ़ा। किसी गाँव में एक जगह विवाह का आयोजन था। वहाँ बहुत से लोग उपस्थित थे। यह
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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