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________________ (410) ... श्री कल्पसूत्र-बालावबोध से मध्यमा शाखा निकली। ब्रह्मद्वीपिका शाखा की उत्पत्ति गौतम गोत्रीय स्थविर आर्य समित से ब्रह्मद्वीपिका शाखा निकली। उसका संबंध इस प्रकार है- . आभीर देश में अचलपुर नगर के नजदीक एक कन्ना और दूसरी वेन्ना ये दो. नदियाँ बहती थीं। उनके बीच में ब्रह्म नामक एक द्वीप था। वहाँ पाँच सौ तापस बसते थे। एक तापस अपने पैरों में लेप लगा कर खड़ाऊँ पहन कर हमेशा वेन्ना नदी के जल में थल की तरह चल कर गाँव में पारणा करने आता था। तब लोग उसकी प्रशंसा करते कि इस तापस की कैसी अपार तपःशक्ति है! इस भ्रम में अनेक लोग मिथ्यात्वी हो गये और तापस की भक्ति करने लगे। वे श्रावकों से भी कहने लगे कि देखो, हमारे गुरु का कैसा प्रभाव है! इसके प्रभाव में कुछ भी न्यूनता नहीं है। ___ऐसे उपदेश से अनेक लोगों को मिथ्यात्वी होते देख कर श्रावकों ने श्री वज्रस्वामी के मामा श्री आर्य समितसरि को बुलाया। सूरिजी आये, तब श्रावकों ने पूछा कि हे स्वामिन्! इस तापस की किस प्रकार की तपःशक्ति है? आचार्य ने कहा कि तपःशक्ति कुछ भी नहीं है, पर पादलेपशक्ति है। तब श्रावक सब समझ गये। फिर तापस का छिद्र प्रकट करने के लिए श्रावकों ने उस ताफ्स को अपने घर भोजन के लिए निमंत्रण दिया। इससे मिथ्यात्वी लोग बहुत खुश हुए। वे सोचने लगे कि ये श्रावक भी अब हमारे धर्म में आ जायेंगे। ऐसा जान कर वे योगी को श्रावकों के घर ले आये। श्रावकों ने भक्ति के बहाने उस तापस के पैर रगड़ रगड़ कर धो डाले। इससे योगी को मन में तो बड़ा दुःख हुआ, पर शर्म के मारे वह 'ना' न कह सका। फिर उस तापस ने जल्दी जल्दी भोजन किया और वह तुरन्त वहाँ से उठा। श्रावक आदर दे कर उसे उसके स्थानक पर पहुँचाने के लिए पुनः उसके साथ चले। वे मन में तो ऐसा समझते थे कि देखें अब कैसा मजा आता है, पर बाहर से उसे पहुँचाने का दिखावा कर के उसके साथ गये। सब किनारे आ कर खड़े हो गये। तापस ने विचार किया कि यदि थोड़ा सा भी लेप रहा होगा, तो नदी पार कर लूँगा। यह सोच कर उसने नदी में पैर रखा, तो वह तुरन्त डूबने लगा। लोगों में उसकी निन्दा हुई। फिर दया ला कर श्रावकों ने उसे नदी में से खींच कर बाहर निकाला। _इतने में लोगों को प्रतिबोध देने के लिए श्री आर्य समितसूरि भी वहाँ आये और चुटकी बजा कर बोले कि हे वेन्ने-कन्ने! मुझे उस पार जाना है, इसलिए मार्ग दो। आचार्य के मुख से यह वचन निकलते ही नदी के दोनों किनारे आपस में मिल
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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