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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (409) श्री हर्षपुर नगर जिसे आज अजमेर कहते हैं, वहाँ तीन सौ जैनमंदिर और चार “सौ अन्य दर्शनीयों के मंदिर थे तथा आठ हजार घर ब्राह्मणों के और छत्तीस हजार घर महाजनों के थे तथा वहाँ नौ सौ बाग, सात सौ बावड़ियाँ और सात सौ दानशालाएँ थीं। राजा सुभटपाल वहाँ राज करता था। . एक दिन वहाँ ब्राह्मणों ने एक यज्ञ का आयोजन किया। इतने में वहाँ श्री प्रियग्रंथसूरिजी पधारे। उन्होंने वासक्षेप मंत्रित कर के श्रावकों के हाथ पर रखा। उन श्रावकों ने यज्ञमंडप में जा कर होम करने के लिए ब्राह्मण जो बकरा लाये थे, उस पर वह वासक्षेप डाला। इससे बकरे के शरीर में अंबिकादेवी ने प्रवेश किया। तब वह बकरा उड़ कर आकाश में जा कर मनुष्यवाणी में बोलने लगा कि अरे! निर्दयी ब्राह्मणो! जैसे तुम निर्दयता से निरपराध जीवों को मार डालते हो, वैसे यदि मैं अब निर्दय हो जाऊँ, तो तुम सबको मार सकता हूँ। जैसे हनुमान ने राक्षसों में किया था, वैसा मैं भी तुम्हें कर के दिखा सकता हूँ। पर मुझसे दया का उल्लंघन नहीं हो सकता, इसलिए मैं तुम्हारी तरह निर्दयी नहीं हो रहा हूँ। फिर भी तुम इन बेचारे कोमल-मूक पशुओं का हनन करते हो, इससे तुम महापापी बनते हो। जिस पशु को मारते हैं, उस पशु के जितने रोम होते हैं, उतने हजार वर्ष तक उस पशु को मारने वाला प्राणी नरक में पड़ कर दुःख भोगता है। इसी तरह यदि कोई मनुष्य मेरुपर्वत जितना सोना दान में दे अथवा समस्त पृथ्वी का दान करे, उतने दान से भी अधिक फल मरने वाले एक प्राणी को बचाने से होता है। इसलिए मरते हए प्राणी को बचाने जितना फल सोने के दान से या पृथ्वी के दान से भी मिलता नहीं है, क्योंकि 'अन्य सब प्रकार के दानों का फल तो कालान्तर में समाप्त हो जाता है, पर अभयदान का फल कभी खत्म नहीं होता। उसके वचन सुन कर निर्दयी ब्राह्मण बोले कि तुम कौन हो? बकरे ने कहा कि मैं अग्निदेव हूँ। बकरा मेरा वाहन है। तुम पशुओं को मारते हो, इसलिए तुम्हें बहुत दुःख भोगना पड़ेगा। इसीलिए तुम पर दया ला कर मैं तुम्हें उपदेश देने आया हूँ। तब ब्राह्मणों ने कहा कि हम धर्म के लिए मारते हैं। इसके उत्तर में बकरे ने कहा कि पशुवध से धर्म कहाँ होने वाला है। यदि इसका मुद्दा (रहस्य) पूछना हो, तो जैनाचार्य श्री प्रियग्रंथसूरिजी से पूछो। वे महाकृपापात्र हैं, इसलिए तुम्हें सब समझा कर तुम्हारा निस्तार करेंगे। फिर ब्राह्मण प्रियग्रंथसूरिजी के पास पूछने आये। उन्होंने दयारूप शुद्ध धर्म बताया। उसे सुन कर ब्राह्मण प्रमुख अनेक लोग जैनी हुए। इस तरह श्री प्रियग्रंथसूरिजी
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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