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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध भी वह गृहस्थ अर्पण करता है तथा रसगृद्धि भी होती है। . इससे ऐसा हो सकता है कि वह साधु उसका घर ही न छोड़े। कभी किसी दूसरे गाँव गया हो, तो भी मिष्टान्न के लोभ के कारण वह पुनः आ सकता है। इसके अलावा वस्त्रादिक की याचना करने पर वह गृहस्थ तुरन्त दे डाले। इससे उपधि की वृद्धि होती है और फिर उस शय्यातर का पिंड लेने से वह साधु गाँव में भ्रमण करने से वंचित रहे। इससे उसका शरीर मोटा हो जाये। और फिर उस शय्यातर का पिंड ग्रहण करने से कदाचित् गृहस्थ को ऐसा भय भी लग जाये कि जो उपाश्रय बनाता है या देता है, उसे आहारादिक भी देना पड़ता है। इस कारण से कोई उपाश्रय भी न बनाये और ठहरने के लिए कोई जगह भी न दे। इससे आहार, शिष्यादि मिलना भी दुर्लभ हो जाये। इत्यादि दोषों के प्रसंग से सब तीर्थंकरों ने शय्यातर के घर का आहार लेने का निषेध किया है। कदाचित् किसी कारण से शय्यातर का पिंड लेना पड़े, तो रात्रि के चार प्रहर साधु क्रिया-सज्झाय करते हुए जागरण करे। नींद न ले और प्रभात का प्रतिक्रमण अन्य स्थान पर जा कर करे, तो उपाश्रय का स्वामी शय्यातर नहीं होता। और यदि वह साधु रात को नींद ले और सुबह का प्रतिक्रमण अन्य स्थान पर करे; तो दोनों शय्यातर होते हैं। याने कि दोनों स्थान. पर आहारादिक लेना नहीं कल्पता। तथा 1. तृण, 2. मिट्टी का ढेला, 3. भस्म (राख), 4. मात्रा का पात्र, 5. बाजोट, 6. पाट-पाटली, 7. शय्या, 8. संथारा, 9. लेपप्रमुख वस्तु, 10. उपधि सहित शिष्य याने वस्त्रादि सहित शिष्य; ये दस वस्तुएँ शय्यातर के घर की लेना कल्पता है। यह कल्प सब तीर्थंकरों के साधुओं को निश्चय से होता है। इसलिए इसे नियत कल्प कहते हैं। . 4. चौथा राजपिंड कल्प कहते हैं- जो महान छत्रपति, चक्रवर्ती आदि राजा होता है और सेनापति, पुरोहित, श्रेष्ठी, प्रधान और सार्थवाह इन पाँचों के साथ जो राज करता है; उसे राजा कहते हैं। उसके घर का आहारादिक पिंड प्रथम तीर्थंकर के साधु-साध्वी को तथा चरम श्री वीर भगवान के
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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