________________ (354) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध होगा भी नहीं कि जिसने एक हजार वर्ष तक पृथ्वी पर भ्रमण कर के और अनेक कष्ट सहन कर के कमाया हुआ अमूल्य केवलज्ञानरूप महारत्न परम स्नेह से प्रथम अपनी माता को दिया। इसी प्रकार मरुदेवी के समान कोई माता भी न तो हुई है और न ही होगी, क्योंकि जो पुत्र के विवाह के लिए मुक्तिकन्या देखने के लिए पहले से ही वहाँ चली गयी। इस तरह इस अवसर्पिणी काल में सबसे पहले श्री मरुदेवीजी मोक्ष गयीं। इन्द्रादिकों ने उनके शरीर का संस्कार कर के उसे क्षीरसमुद्र में विसर्जित किया। फिर इन्द्र के वचन से शोक दूर कर के बावड़ी में स्नान कर के भरत महाराजा ने हर्षशोकाकुल होते हुए समवसरण में जा कर भगवान को वन्दन किया। इस तरह सबसे प्रथम केवली नाम प्रचलित हुआ। श्री चतुर्विध संघ की स्थापना भरत महाराज श्री ऋषभदेवस्वामी को नमस्कार कर के पर्षदा में बैठे। भगवान ने धर्मोपदेश दिया। उस प्रथम देशना में ऋषभसेनप्रमुख पाँच सौ भरत के पुत्र तथा सात सौ भरत के पौत्र इस प्रकार कुल बारह सौ कुमारों ने दीक्षा ली। इन बारह सौ कुमारों में मरीचि भी साथ में जानना। भगवान ने वहाँ पुंडरीकादिक चौरासी गणधरों की स्थापना की। ब्राह्मी ने बाहुबली से पूछ कर दीक्षा ली। वह प्रथम साध्वी हुई और भरत महाराज प्रथम श्रावक हुए। सुन्दरी भी दीक्षा लेना चाहती थी, पर उसे अत्यन्त स्वरूपवान जान कर भरत ने स्त्रीरत्न के रूप में स्थापन करने की इच्छा से दीक्षा लेने की आज्ञा नहीं दी। इसलिए वह श्राविका हुई। इस तरह साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विध संघ की स्थापना और धर्म की प्ररूपणा कर के भगवान ने प्रथम तीर्थंकर नाम धारण किया। जिस वृक्ष के नीचे प्रभु को केवलज्ञान हुआ, उसका नाम प्रयागवड प्रसिद्ध हुआ। उस वृक्ष की लोगों में पूजा शुरु हुई। आज भी वह प्रयागवड के नाम से पूजा जाता है। कच्छ और महाकच्छ ये दोनों तो तापस ही बने रहे। अन्य सब भद्रं परिणामी