________________ (352) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध इसी अवसर पर भरत महाराजा की आयुधशाला में चक्ररत्न भी प्रकट हुआ। तब श्री ऋषभदेव के केवलज्ञान की और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट होने की दोनों बधाइयाँ एक साथ भरत को मिली। भरत ने बधाई देने वालों को हर्षदान दे कर बिदा किया। फिर भरतजी विचार करने लगे कि दो बधाइयाँ साथ आई हैं, तो इनमें से किसका महोत्सव पहले करूं? इस तरह क्षणभर विचार कर के उन्होंने निश्चय किया कि चक्ररत्न तो सांसारिक है और श्री तीर्थंकर का केवलमहोत्सव तो लोकोत्तर है तथा पिता की पूजा की, तो सब की पूजा की। इसलिए प्रथम इस लोक और परलोक में सुखदायक ऐसे केवलज्ञान का महोत्सव कर के फिर चक्ररत्न की पूजा करूंगा। ऐसा निश्चय कर के मरुदेवी माता के पास जा कर भरत ने कहा कि हे माताजी! आप मुझे उपालंभ देती थीं, पर आज आपके पुत्र यहाँ पधारे हैं। आप मेरे साथ चलिये। मैं आपको आपके पुत्र की महिमा बताता हूँ। यह कह कर मरुदेवीजी को हाथी पर बिठा कर और फिर स्वयं भी बैठ कर बड़े आडंबर के साथ भरतजी वहाँ से चले। चलते चलते जब समवसरण के नजदीक आये, तब माताजी ने पूछा कि हे भरत! ये देवों के बाजे कहाँ बज रहे हैं? तब भरत ने कहा कि ये बाजे आपके पत्र के आगे बज रहे हैं। पर माताजी ने यह बात नहीं मानी। फिर आगे बढ़ने पर जो अनेक देवदेवियाँ समवसरण की रचना करने और केवलज्ञान का महोत्सव करने के लिए आये थे, वे आपस में एक-दूसरे को आवाज दे रहे थे। वह आवाज सुन कर मरुदेवी ने भरत से पूछा कि यह कोलाहल कैसा हो रहा है? तब भरत ने कहा कि माताजी! ये देवीदेवता आपके पुत्र की पूजा करने के लिए आना-जाना कर रहे हैं। इस कारण से कोलाहल हो रहा है। तो भी माता ने नहीं माना। फिर आगे बढ़ने पर भरत महाराजा ने कहा कि हे माताजी! यह रूपा, सोना और रत्नों से बना हुआ आपके पुत्र का घर तो देखिये। इसकी शोभा का मैं क्या वर्णन करूँ? इसका वर्णन तो करोड़ों ब्रह्मा हजारों जिह्वाओं से भी नहीं कर सकते। यह बात सत्य मान कर मरुदेवीजी अपनी