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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (351) भी नहीं लाता। तू तो सब प्रकार के सुन्दर स्वादिष्ट भोजन बनवा कर खाता है और मेरा पुत्र भिक्षा माँग कर सूखे टुकड़े खाता है। तू तो बढ़िया गहने पहनता है और मेरा पुत्र नग्न फिरता है। तू सुखपूर्वक शय्या में सोता है और मेरा पुत्र कठिन पथरीली काँटों भरी जमीन पर सोता है। अरे! जो मधुर गीतगान से जागता था, वह अब सियार आदिक के कर्कश व दुष्ट स्वर से जागता होगा। उसके भूख-प्यास, शरीरशुश्रूषा आदि की कौन सम्हाल लेता होगा? वह नंगे पैर चलता होगा, इत्यादिक अनेक प्रकार के उपालंभ वह देती रहती थी। पुत्र की चिन्ता से मरुदेवी माता की आँखों में पडल आ गये। भरत महाराजा अपनी दादी माँ को समझाते हुए कहते कि "हे माताजी! आप कुछ भी चिन्ता मत कीजिये। आपका पुत्र बहुत सुखी है।" तब माँ कहती कि मुझे दिखा। उस समय भरत कहते कि वे कुछ दिन बाद यहाँ आयेंगे, तब मैं आपको दिखाऊँगा। मरुदेवी माता इस तरहं भरत को उपालंभ देती रहती थी। ऋषभदेव को केवलज्ञान और मरुदेवी का मोक्षगमन श्री ऋषभदेव अरिहंत ने एक हजार वर्ष तक काया को वोसिरा दिया और शरीर की शुश्रूषा छोड़ दी। उन्हें कोई उपसर्ग नहीं हुआ। एक वर्ष तक आहार नहीं मिला, यही एकमात्र उपसर्ग हआ। उसे सहन करते हए और आत्मा को भावते हुए- आत्मचिन्तन करते हुए एक हजार वर्ष बीत गये। तब शीतऋतु का चौथा महीना सातवाँ पखवाड़ा फाल्गुन वदि एकादशी के दिन पूर्वाह्नकाल के समय में, पुरिमताल नगर के शकटमुख नामक उद्यान में न्यग्रोध बडवृक्ष के नीचे, पानीरहित अट्ठम तप करते हुए, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर शुक्लध्यान के मध्यभाग में वर्तते हुए, जिसके समान अन्य कोई पदार्थ संसार में नहीं है, ऐसा अनुपम, अनन्त केवलज्ञान और अनन्त केवलदर्शन प्रभु को उत्पन्न हुआ। उसके योग से प्रभु सब भाव जानने-देखने लगे।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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