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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (329) कुलकरों की उत्पत्ति और नीतिप्रचार इस अवसर्पिणी के तीसरे आरे के अन्त में पल्योपम का आठवाँ भाग शेष रहने पर दक्षिण तरफ का आधा भरत याने दक्षिणार्द्ध भरत के तीन भागों में से मध्यभाग में याने कि बीच के भाग में प्रथम तीन कुलकर हुए। उनमें से प्रथम कुलकर इस तरह हुआ पश्चिम महाविदेह में दो वणिक रहते थे। वे दोनों आपस में मित्र थे, पर उनमें एक कपटी था और दूसरा सरल मन वाला था। वे जब आपस में द्रव्य बाँटते, तब कपटी वणिक सरल स्वभाव वाले को ठग कर गुप्तरूप से स्वयं धन रखता, पर सरल स्वभाव वाला तो निष्कपट रह कर व्यापार करता था। एक दिन सरल वणिक की स्त्री को देख कर कपटी मित्र मोहित हुआ। उसने उससे भोग भोगने के लिए कहा। वह स्त्री पतिव्रता थी। उसने उससे कहा कि अरे मर्यादाहीन ! तू मित्र की स्त्री को चाहता है? ऐसा कह कर निर्भर्त्सना कर के उसे बाहर निकाल दिया। फिर उस कपटी ने सरल चित्तवाले से कहा कि तेरी स्त्री मुझे चाहती थी, पर मैंने इन्कार कर दिया। यह सुन कर सरल वणिक बैरागी हो गया। मरने के बाद वह इक्ष्वाकुभूमि में मनुष्यरूप में युगलिक हुआ। कपटी मित्र भी मृत्यु के बाद उसी इक्ष्वाकुभूमि में हाथीरूप में युगलिक हुआ, क्योंकि कपट करने से जीव को बहुलता से तिर्यंच अवस्था प्राप्त होती है ... एक बार हाथी युगलिक ने सरल युगलिक को देखा। इससे दोनों को आपस में जातिस्मरणज्ञान हुआ। फिर परम स्नेह से हाथी उसे अपने स्कंध पर बिठा कर रात-दिन घूमने लगा। उसे सफेद हाथी पर बैठा हुआ देख कर अन्य युगलिक कहने लगे कि यह विमलवाहन है। उन्होंने उसका यह नाम रख दिया। इस तरह कुछ काल बीता। फिर काल के प्रभाव से कल्पवृक्ष पहले जैसे नहीं रहे। तब युगलिक आपस में लड़ने लगे और सबने अपने अपने कल्पवृक्ष कायम किये। वे वहीं रहने लगे। अपने स्थान में दूसरे को आने नहीं देते थे। यदि कोई जबरदस्ती
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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