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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (313) हुआ। उसने कामदेव से पीड़ित हो कर लज्जा का त्याग कर कहा कि हे राजीमती! तुम तपस्या कर के शरीर को व्यर्थ क्यों सुखाती हो? मेरे पास आ जाओ। हम दोनों मिल कर सुखमय गृहस्थ जीवन जीयें। अभी युवावस्था में तप करने के लिए अवसर नहीं है। वृद्धावस्था में हम पुनः दीक्षा ले लेंगे। ' रथनेमि के वचन सुन कर अपने अंगोपांग संकोच कर धैर्य और दृढ़ता धारण कर के राजीमती ने कहा कि "अरे ! तुझे धिक्कार है, जो तू दीक्षा ग्रहण कर के ऐसी बातें कहता है। अरे ! समुद्रविजय राजा के पुत्र ने सब सावध व्यापार का त्याग कर साधुता का स्वीकार किया है। उन्होंने मेरा वमन किया है और तू मेरी चाहना करता है? अगंधनकुल के साँप तिर्यंच जाति के होने पर भी वमन की हुई वस्तु की चाहना नहीं करते। वमन की हुई वस्तु की तो श्वानादिक चाहना करते हैं। इसलिए तू तेरा मन ठिकाने रख। मैं किसी तरह तेरे हाथ आने वाली नहीं हूँ। अरे ! तू भोगों का त्याग कर के पुनः नरक में जाने की अभिलाषा क्यों करता है? महानुभाव ! इस पाप की आलोचना ले कर पुनः संयम का उच्चार कर, नहीं तो दुर्गति में जायेगा।" इत्यादिक वचनरूप अंकुश से हाथी की तरह रथनेमि को स्थिर किया। फिर रथनेमि भी पाप की आलोचना ले कर, खमा कर संयम में स्थिर हो कर, केवलज्ञान प्राप्त कर अनुक्रम से मोक्ष गये। श्री नेमीश्वर भगवान से राजीमती उम्र में आठ वर्ष छोटी थीं, ऐसा कोई कोई आचार्य कहते हैं। राजीमतीजी चार सौ वर्ष तक गृहवास में रहीं, एक वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में रहीं तथा पाँच सौ वर्ष केवलपर्याय पाल कर कुल नौ सौ एक वर्ष की आयु पूर्ण कर के श्री नेमिनाथजी से पहले मोक्ष गयीं। - यहाँ कवि उत्प्रेक्षा करते हैं कि राजीमतीजी ने ऐसा जाना कि शिवनारी जो मोक्षरूपिणी स्त्री है, उसे मुझसे अधिक रूपवती जान कर, उस पर श्री नेमीश्वरजी मोहित हुए हैं, तो मैं पहले से ही उस स्त्री को देख तो लूँ। याने मुक्तिरूप स्त्री ने राजीमती के पति का मन वश किया, इसलिए अपनी उस
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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