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________________ (290) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध साथ उनका विवाह होता था। वे सब विद्याधर राजाओं की, अन्य भूचर राजाओं की तथा सेठप्रमुख महाधनाढ्य लोगों की पुत्रियाँ जानना। इस तरह कुल मिला कर बहत्तर हजार कन्याओं के साथ वसुदेवजी का विवाह हुआ तथा अनेक विद्याएँ भी उन्हें प्राप्त हुईं। इसी अवसर में रोहक राजा की पुत्री रोहिणी का स्वयंवर रचा गया। वहाँ त्रिखंडाधिपति जरासंध आदि सब राजा स्वयंवर मंडप में आये। इसी प्रकार समुद्रविजयजी प्रमुख सब यादव भी आये। उस रात में वसुदेवजी को रोहिणी, प्रज्ञप्ति विद्यादेवी ने स्वप्न में आ कर कहा कि हे वसुदेव ! तुम रोहिणी के स्वयंवरमंडप में जाओ। वह तुम्हारे साथ विवाह करेगी। रोहिणी के अलावा एक और कन्या के साथ भी तुम्हारा विवाह होगा। इस तरह तुम्हें दो कन्याओं की प्राप्ति होगी। तुम सो क्यों रहे हो? . सुबह तुम वहाँ जाना। यह कह कर विद्यादेवी ने रोहिणी के पास जा कर उससे भी स्वप्न में कहा कि तुम मृदंग बजाने वाले कुबड़े के साथ विवाह करना। सुबह के समय रोहक राजा ने स्वयंवर मंडप सजाया। वहाँ सब राजा और राजकुमार भी सज-धज कर अपने अपने नाम के सिंहासन पर जा कर बैठे। इतने में राजकन्या रोहिणी भी सोलह श्रृंगार कर सखियों के साथ हाथ में फूलमाला ले कर स्वयंवरमंडप में आयी। तब सब राजा लोग उसे देखने लगे। प्रतिहारिणी प्रत्येक राजा के गुणरूपादिक का वर्णन करने लगी। रोहिणी सती थी, इसलिए दर्पण में से सब देख नहीं सकती थी। इस कारण से प्रतिहारिणी ने सब राजाओं का वर्णन किया। फिर कुलदेवी के वचन को हृदय में धारण कर के रोहिणी ने देखा, तो उसे मालूम हुआ कि कुबड़े के रूप में वसुदेव आये हैं और उनके पास मृदंग है। कुबड़े ने जब मृदंग बजाया, तब उसमें से 'यही वसुदेव यही वसुदेव' ऐसी ध्वनि निकली। उस समय रोहिणी ने कुबड़े के गले में वरमाला डाल दी। तब वह कुबड़ा नाचने लगा और मुख से कहने लगा कि अहो ! इन सब राजाओं से मैं अधिक भाग्यवान हूँ। इसी कारण से ये सब राजा बैठे रहे और वरमाला मुझे मिल गयी। यह देख कर मंडप में आये हुए सब राजा कन्या पर क्रोधित हुए। कई कन्या की निन्दा करने लगे, कई कन्या के पिता की निन्दा करने लगे और कइयों ने कहा कि इस कुबड़े को मार कर इसके पास से वरमाला खींच लो। व्यर्थ दूसरों पर क्रोध करने से क्या होगा? ऐसा आपस में विचार कर उन्होंने कहा कि जिसके सुभंट कुबड़े के पास खड़े हैं, वे कुबड़े के पास से वरमाला खींच लें। वरमाला जो छीन
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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