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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (289) है, यह ठीक नहीं है। क्योंकि समय-असमय में कोई छिद्र देख कर तेरे रूप को बिगाड़ देगा तथा अपन राजा हैं, इसलिए अपने बैरी भी बहुत हैं। वे भी कोई उपद्रव कर सकते हैं। इसलिए आगे से तू अपने घर के बगीचे में खेला कर। अब बाहर घूमना छोड़ दे। बाहर घूमने से सीखी हुई विद्या का विस्मरण हो जाता है। यह सुन कर वसुदेवजी ने भी विनयपूर्वक कहा कि आपका आदेश मुझे मान्य है। फिर वे घर की बाड़ी में ही खेलने लगे। जब गर्मी के दिन आये, तब शिवादेवी ने चन्दन घिस कर कटोरी में भर कर ढंक कर दासी के हाथ में दिया और उसे समुद्रविजयजी के पास भेजा। जब दासी कटोरी ले कर जा रही थी, तब वसुदेवजी ने पूछा कि यह क्या है? तब दासी ने कहा कि हुजूर के विलेपन के लिए रानी ने चंदन की कटोरी दी है, उसे ले जा रही हूँ। तब वसुदेवजी ने दासी के हाथ से कटोरी छीन कर अपने शरीर पर चन्दन का विलेपन कर दिया। यह देख कर दासी ने क्रोध से कहा कि तुम्हारे ऐसे लक्षण होने के कारण ही तुम कैदखाने में पड़े हो। यह सुन कर वसुदेवजी ने दासी से पूछा कि कैदखाना कैसा? तब दासी ने कोई उत्तर नहीं दिया। पर जब अधिक हठ कर पूछा, तब दासी ने गाँव के लोगों से संबंधित सब विचार कह सुनाया। इससे वसुदेवजी राजा तथा पंचों पर अमर्ष ला कर आधी रात के समय अकेले ही घर से बाहर निकल गये। फिर सोचा कि मुझे कोई ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे समुद्रविजयजी मेरी आशा छोड़ दें और बाद में खोज के लिए न निकलें। फिर नगर के बाहर एक मुर्दे को जला कर दरवाजे के किंवाड़ पर खून से अक्षर लिखे कि हे नगरवासीजनो! तुम सुनो। मैं तुम्हारे तथा मेरे बड़े भाई के सुख के लिए जल कर भस्म हुआ हूँ। अब तुम सब सुख-समाधि में रहना। ऐसा लिख कर वसुदेवजी वहाँ से चले गये।। सुबह के समय द्वाररक्षक ने जब दरवाजा खोला, तब जला हुआ मुर्दा देखा और किंवाड़ पर वसुदेवजी के लिखे हुए अक्षर पढ़े। फिर उसने समुद्रविजयजी को सब हाल कह सुनाया। समुद्रविजयजी ने जब वहाँ जा कर देखा, तब वे शोकातुर हो कर मरने के लिए तैयार हो गये। पर प्रधानादि लोगों ने उन्हें समझा कर रोक दिया। फिर वे शोक में डूबे रह कर राज करने लगे। अब वसुदेवजी गाँव गाँव घूमने लगे। वे जहाँ जाते वहाँ पूर्व जन्म में किये हुए नियाणे के प्रभाव से कहीं दस, कहीं बीस, कहीं सौ, कहीं पाँच सौ कन्याओं के
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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