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________________ (272) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध के पश्चिम महाविदेह में गंधिलावती विजय की शुभंकरा नगरी के वज्रवीर्य राजा की लक्ष्मीवती रानी की कोख से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। माता-पिता ने उसका नाम वज्रनाभ रखा। अनुक्रम से पिता ने उसे राजगद्दी पर बिठाया। इस प्रकार यौवनवय में राज्य-संचालन करते हुए वह सांसारिक सुख भोगने लगा। एक दिन शुभंकरा नगरी के उद्यान में श्री क्षेमंकर तीर्थंकर का समवसरण लगा। वज्रनाभ उन्हें वन्दन करने गया। वहाँ तीर्थंकर की देशना सुन कर संसार अनित्य जान कर उसने भगवान से दीक्षा ग्रहण की। फिर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। जंघाचारण लब्धि के बल से एक बार मुनि वज्रनाभ सुकच्छ विजय में निज्वलन पर्वत पर काउस्सग्ग में रहे। उस समय कमठ का जीव पाँचवीं नरक से निकल कर संसार में अन्य भी अनेक भव भ्रमण कर उस पर्वत पर कुरंग नामक भील हुआ था। वह अपने स्थान से शिकार के लिए बाहर निकला। तब वज्रनाभ मुनि को देख कर पूर्वभव के बैर के कारण उन्हें देखते ही अपशकुन हुआ जान कर उसे क्रोध उत्पन्न हुआ। उसने मुनि के मर्मस्थान में एक बाण खींच कर मारा। इससे मुनि शुभध्यान में चल बसे। यह छठा भव जानना। सातवें भव में मुनि शुभध्यान में मर कर मध्यम अवेयक में देवरूप में उत्पन्न हुए और भील भी मृत्यु के बाद मुनिहत्या के पाप से सातवीं नरक में गया। यह सातवाँ भव जानना। आठवें भव में मरुभूति का जीव मध्यम अवेयक से च्यव कर जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में शुभंकर विजय के * पुराणपुर नगर में कुशलबाहु नामक वासुदेव की सुदर्शना रानी की कोख से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उस समय माता ने चौदह स्वप्न देखे। पुत्रजन्म के बाद माता-पिता ने उसका नाम सुवर्णबाहु रखा। रानी के चौदह स्वप्नदर्शन के प्रभाव से उसे चक्रवर्तीपद प्राप्त हुआ। फिर छह खंड साध कर चक्रवर्ती पद भोग कर तीर्थंकर की देशना सुन कर वृद्धावस्था में सुवर्णबाहु ने दीक्षा ग्रहण की। फिर बीस स्थानक तप की आराधना कर के तीर्थंकर गोत्र बाँधा (तीर्थंकरनामकर्म निकाचित किया।) वे राजर्षि एक दिन वीरान स्थान में काउस्सग्ग ध्यान में खड़े थे। उस
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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