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________________ (19) अजर-अमर बना कर कृतकृत्य होते हैं। ऐसे सत्यधर्म (सम्यक्त्व) की प्राप्ति के लिए ज्ञान-क्रियायुक्त निग्रंथ गुरु का योग मिले, तब उनके मुख से जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित या बहुश्रुताचार्यों द्वारा रचित शास्त्रों का श्रवण करना चाहिये अथवा पढ़ना आता हो तो उन्हें स्वयं पढ़ना चाहिये। यदि सांसारिक व्यवसाय (रोजगार) के प्रपंच से पढ़ने के लिए अधिक अवकाश न मिलता हो, तो भी रात-दिन में दो-चार घड़ी निर्धारित कर के उस समय शास्त्रवाचन अवश्य करना चाहिये। घर की स्थिति अच्छी न होने से या कुटुम्ब-परिपालन के प्रपंच से प्रतिदिन वाचन-श्रवण न हो सके,तो पर्वतिथियों में ऐसा अभ्यास रखना चाहिये। यह भी न हो सके, तो पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय का धिक्कार और आत्मगर्दा कर के पर्युषण पर्व के दिनों में तो इस कल्पसूत्र का श्रवण-वाचन अवश्य करना ही चाहिये। क्योंकि इस सूत्र का भी भक्ति बहुमान पूर्वक श्रवण या वाचन करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। जैसे-जैसे क्षय होता जाता है, वैसे-वैसे क्षयोपशम की तरतमता होती है। उसे श्रवण-वाचनादि साधन भी सुलभ होते हैं और इससे कालान्तर में ज्ञानी होना संभव होता है। यह निर्विवाद सिद्ध है। इस विषमकाल (पंचम आरक) में तो धर्मदेशक और सत्यप्ररूपक निर्लोभी निग्रंथ मुनिवरों का योग मिलना बहुत मुश्किल है और कई गाँवों या शहरों में ऐसे मुनिवरों का योग मिलता है, तो श्रद्धालु और योग्य श्रोताओं की खामी देखने में आती है। वर्तमान समय में जैनों की बस्ती वाले बहुत से गाँव ऐसे भी देखने में आते हैं, जहाँ योग्य साधुओं का योग तो दूर रहा; परन्तु शिथिलाचारी नामधारी योग्य पढ़े-लिखे यतियों का योग भी नहीं मिलता। इन गाँवों में जैन लोग पर्युषण जैसे पवित्र पर्व दिनों में कल्पसूत्र श्रवण या धार्मिक क्रियाओं से भी वंचित रहते हैं। किसी-किसी गाँव के भावुक जैन नकरा निश्चित करा के पर्युषण पर्व के दिनों में यतियों को बुला कर कल्पसूत्र-श्रवण और धर्म क्रिया का आचरण करते हैं; परन्तु गाड़ी, बाड़ी और लाड़ी (स्त्री) के प्रेमी व किराये के यति अनेक नखरे कर के भाविकों को तंग करते हैं। इससे वे भाविक यतियों को पुनः बुलाने की इच्छा भी नहीं रखते। - कई यति सरल व शान्त स्वभाव वाले होते हैं। वे अपने पास कल्पसूत्र की टब्बावाली या बालावबोध वाली जैसी प्रति होती है, वही पढ़ कर सुनाते हैं और वैसे सुनाने वाले यति भी हर गाँव में नियमित आते नहीं है। वे हर वर्ष बदलते रहते हैं। इसी प्रकार कल्पसूत्र की प्रतियाँ भी सब एक जैसी नहीं होतीं। किसी प्रति में वर्णन या कथा भाग विस्तार से, तो किसी में संक्षेप में लिखा होता है। अब एक वर्ष एक
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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