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________________ (18) प्राथमिक वक्तव्य व्य इस असार संसार में प्राणिमात्र का जीवितव्य जलतरंग-वत्, नाना प्रकार की संपत्तियाँ दुःखागारवत्, इन्द्रियों के विविध विषय संध्यारागवत् और स्वजनादिक का समागम स्वप्नोपम या इन्द्रजालवत् है तो भी मोहनीय कर्म के उदय से प्राणी समझता है कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा ऐश्वर्य है, मैं महासत्ताधारी हूँ, संसार में मेरे सन्मुख बोलने वाला कौन है? इत्यादि मानसिक विनाशक संकल्पों में फँस कर प्राणिमात्र उनसे क्षणमात्र भी अलग नहीं हो सकते और वे दुराग्रह, दंभ, लोभादिक में पड़ कर प्राप्त मनुष्य जन्म को सफल नहीं कर सकते। पूर्व में कुटुम्ब, वैभव और स्वजनादिक के संयोगजन्य सुख जीव यद्यपि अनन्त बार प्राप्त कर चुका है; तथापि उनकी पुनः प्राप्ति पर मानो ये सुख अभी ही मिले हैं, ऐसा मान कर वह उनमें तल्लीन हो जाता है। परन्तु परमार्थ दृष्टि से देखने पर तो सांसारिक प्रत्येक सुख दुःखरूप ही है। वह संसारवर्द्धक, कुगति का कारण और निजगुणोच्छेदक है। इन कल्पित विषय-सुखों में गोते लगाते हुए अनन्त कालचक्र व्यतीत हो गये, पर अभी तक तृप्ति नहीं हुई और आगे होने की आशा भी नहीं है। इसलिए मिथ्या आशा छोड़ कर धर्मध्यान में तत्पर रहना ही उभयलोक में हितकर मार्ग है। ____ मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से जब अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों का समूल क्षय होता है, तब क्षायक सम्यक्त्व; क्षयोपशम होता है, तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और उपशम होता है, तब उपशम सम्यक्त्व होता है। इन तीन में से कोई एक सम्यक्त्व जीव को जब मिलता है, तब जिनेन्द्रभाषित शुद्ध धर्म मिला; ऐसा कहा जा सकता है और उसके मिलने से जीव को स्वयमेव विचार उत्पन्न हो जाता है कि सांसारिक विषयसुख अनित्य है, यह पार्थिव शरीर क्षणभंगुर है, भोग रोग का घर है, जनादिक का समागम पँखेरुओं का मेला है, संसार में सकर्मी जीव अजर-अमर रहने वाले नहीं हैं, एक दिन मौत का डंका तो बजने वाला ही है; इसलिए काल का भरोसा न करते हुए जो कुछ शुभकृत्य करने का है; उसे त्वरा से कर लूँ, तो अच्छा है। ऐसे सद्विचार उसके मन में उद्भुत (उत्पन्न) होने से वह जीव तप-जप, प्रतिक्रमण, पौषध, व्रत-नियम, पूजा, प्रभावना और तीर्थयात्रा आदि शुभ कार्य कर के अपनी आत्मा को सफल बनाने में समर्थ होता है। ऐसे ही प्राणी द्विविध (अंतर्बाह्य) परिग्रह का त्याग कर के, संयम का आदर कर के, सबके मुख से मंगल बुलवा कर के तथा अपनी कीर्ति को
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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