________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (241) अब इससे वह क्या सुखी होने वाला है? जैसे कोई आग में गिरता है, तो वह भस्म हुए बिना नहीं रहता, वैसा ही इसने भी किया है। ऐसा सोचते हुए जब उसने समवसरण की पहली सीढ़ी पर चढ़ कर देखा, तो उसे तीन गढ़ दिखाई दिये। वे गढ़ कैसे हैं? पहला गढ़ रौप्य का है। उसके कंगूरे सुवर्णमय हैं। चार दिशाओं में चार प्रवेशद्वार हैं। दूसरा सवर्णगढ़ है। उसके कंगरे रत्न के हैं। तीसरा रत्नगढ़ है। उसके कंगरे मणिकान्त के हैं। समवसरण का विस्तार एक योजन का है। उसके मध्य में अशोकवृक्ष है। ऊपर तीन छत्र सहित सुवर्ण का सिंहासन है। उस पर स्वामी बैठे हैं। . . __यह सब इन्द्रभूति ने अपनी आँखों से देखा। तब मन में सोचा कि मैंने वादी तो अनेक देखे हैं, पर ऐसा तेजस्वी वादी कहीं नहीं देखा। क्या यह ब्रह्मा है? नहीं, यह ब्रह्मा तो नहीं लगता। क्योंकि ब्रह्मा के तो सावित्री नामक स्त्री है। उसके हाथ में पवित्री और कमंडलु है। वह हंसवाहन है। उसके पाँचवाँ गर्दभमुख है। ये सब इसमें नहीं मिलते। इसलिए यह ब्रह्मा तो नहीं है। ___फिर क्या यह विष्णु है? नहीं, यह वह भी नहीं है। क्योंकि विष्णु के लक्ष्मी नामक स्त्री है, चार हाथ हैं, शंख-चक्र-गदा-धनुष्य ये आयुध हैं, गरुड़ वाहन है और उसका वर्ण श्याम है। इसलिए यह विष्णु भी नहीं है। तो क्या यह ब्रह्मज्ञानी है? नहीं, वह भी नहीं है, क्योंकि वह तो अरूपी है। चन्द्रमा सोलह कलाओं से सम्पूर्ण है, पर कलंकसहित है, इसलिए यह चन्द्रमा भी नहीं है। यदि इसे सूर्य कहूँ, तो सूर्य से भी इसका तेज बहुत अधिक है। परन्तु सूर्य की किरणें उष्ण हैं, वे उष्ण किरणें इसके नहीं हैं। इसलिए यह सूर्य कैसे हो सकता है? यदि इसे इन्द्र कहूँ, तो यह इन्द्र भी नहीं है, क्योंकि उसके हजार आँखें हैं। वे इसके नहीं हैं और यदि इसे मेरु कहूँ, तो मेरु कठिन है, वह कठिनता इसमें नहीं है। इसलिए यह मेरु भी नहीं है।