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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (237) कहते हैं कि हम पंडित हैं तथा गाँव में जो गँवार होता है, वह भी पंच बनता है, परन्तु जब पंडितों से भरी हुई सभा में बोलना पड़ता है, तब होंठ थरथर धूजने लगते हैं। वैसे ही यह भी दूसरों के आगे अपना नाम सर्वज्ञ कहता है, पर मेरे आगे बोल भी नहीं सकेगा। अरे ! जिस अग्नि ने पर्वतों को जला डाला, उसके आगे वृक्ष का क्या भार है? जिस वायु ने हाथी जैसों को उड़ा दिया, उसके आगे पूनी का क्या जोर है, जिस नदी में हाथी बह गये, उसके आगे बिचारी कीड़ी किस गिनती में है? इस प्रकार इन्द्रभूति यह सोच रहा था कि इतने में अग्निभूति ने कहा कि भाई ! उस ऐन्द्रजालिक को जीतने के लिए तुम इतने सोच में क्यों पड़े हो? कीड़ी पर कटक क्या ले जाना है? केंचुए के लिए गरुड़ को क्या बुलाना है? तृण पर कुल्हाड़ी चलाना किस काम का है? कमल की नाल को तोड़ने के लिए परशु उठाना किस काम का है? बेल उखाड़ने के लिए हाथी का क्या काम है? वैसे ही उस बेचारे गरीब सर्वज्ञ के पास वाद करने के लिए तुम क्या जाते हो? मुझे ही आज्ञा दो, तो मैं ही उसे जीत कर आ जाऊँ। ___भाई के ऐसे वचन सुन कर इन्द्रभूति ने कहा कि हे भाई ! उसे क्या जीतना है? उसे तो मेरे पाँच सौ शिष्यों में से कोई भी जीत सकता है। फिर भी मुझसे रहा नहीं जाता। क्योंकि थोड़ा सा शल्य भी काम का नहीं होता। इसलिए मैं स्वयं जाऊँगा। अन्य सब वादियों को तो मैंने जीत लिया है, पर यह कहीं रह गया लगता है। जैसे हाथी के मुख में कोई कण रह जाता है, मूंग राँधने में कोई करडु मूंग रह जाता है, कोल्हू में पीलते वक्त कोई तिल रह जाता है, अगस्तिऋषि द्वारा समुद्र को तीन चुल्लू में पीये जाते समय कोई बिन्दु रह जाता है और चने भूनते समय कोई चना बाहर रह जाता है, वैसे ही यह भी रह गया है। इसलिए हे भाई! इस एक को न जीतने पर लोक में यह कहा जायेगा कि मैंने सबको नहीं जीता। एक बार किसी स्त्री का शील खंडित हो जाये, तो वह स्त्री असती कहलाती है, वैसे ही इसे जीते
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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