________________ (226) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध हुए अग्नि के समान अपने तेज से जाज्वल्यमान थे। इस कारण से उन्हें कहीं भी प्रतिबंध नहीं था। प्रतिबंध चार प्रकार का है, सो कहते हैं- प्रथम द्रव्य से प्रतिबंध तीन प्रकार का है। उसमें पहला माता-पिता-पुत्रादिक का प्रतिबंध। यह द्रव्य से सचित्त प्रतिबंध जानना। दूसरा अलंकारप्रमुख का प्रतिबंध। यह द्रव्य से अचित्त प्रतिबंध जानना। तीसरा श्रृंगार की हुई स्त्रीप्रमुख का प्रतिबंध। यह मिश्र प्रतिबंध जानना। इस तरह तीनों प्रकार का प्रतिबंध उन्हें नहीं था, इसलिए वे ममत्वरहित थे। दूसरा क्षेत्र से प्रतिबंध- गाँव, नगर, उद्यान, खेत, खलिहान, घर, घर का आँगन, आकाश इत्यादिक किसी पर उन्हें ममत्व नहीं था। ____ तीसरा काल से प्रतिबंध- उस समय में आवलिका, श्वासोच्छ्वास, सात श्वासोच्छ्वास का एक स्तोक (क्षण), सात स्तोक का एक लव, दो घड़ी का एक मुहूर्त, तीस मुहूर्त का एक दिन-रात, पन्द्रह दिन-रात का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन-तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयन का एक वर्ष, पाँच वर्ष का एक संवत्सर इत्यादिक अन्य भी दीर्घकाल में किसी समय यह अमुक काम मैं करूँगा, ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था। . तथा चौथा भाव से प्रतिबंध- क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, हास्य, रागद्वेष, वचनयुद्ध, किसी पर झूठा कलंक लगाना, चुगली करना, दूसरों के दोष प्रकट करना, अरति-द्वेष, रति-प्रीति, कपटपूर्वक बोलना और मिथ्यात्व शल्य; ये काम करे तो भाव से प्रतिबंध किया कहा जाता है। इनमें से भगवान के एक भी नहीं था। भगवान ने वर्षाकाल छोड़ कर शेष गरमी और जाड़े के आठ महीनों में गाँव में एक रात और नगर में पाँच रात से अधिक न रहते हुए सतत विहार किया। जैसे कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है, पर चन्दन तो उल्टे उसकी धार को सुगंध ही देता है और जो नहीं छेदता, उसे भी सुगंध देता है, वैसे ही भगवान को कोई बसूले से छेदता या कोई चन्दन का लेप करता, तो वे दोनों पर समान मन रखते थे। वे अर्घावतारन और असिप्रहारन में सदा समताधारी थे। उनके लिए तृण और मणि तथा पाषाण और सुवर्ण दोनों समान थे। इहलोक और परलोक से उन्हें कोई मतलब नहीं था। उन्हें न तो जीने की इच्छा थी और न ही मरने की। वे संसारसमुद्र से पार होने