________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (225) आता तथा किसी के जानने में भी नहीं आता। खेल, नाक-मल और खंखार उनके होते ही नहीं, क्योंकि उन्हें रोग का अभाव होता है। भगवान ने मन, वचन और काया को कुकर्म में नहीं लगाया। मन, वचन और काया को भली रीति से चलाने के कारण ये तीन समितिसहित हुए तथा भगवान मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीन गुप्तियों से गुप्ता हुए। वे इन्द्रियों का गोपन कर नव बाड़ सहित शीलवान हुए और क्रोध, मान, माया और लोभ रहित अत्यन्त शीतलस्वभावी हुए। उनके क्रोधादिक उपशान्त हो गये थे और उन्होंने पाप को रोक लिया था। वे निरास्त्रव, ममत्वरहित, धनरहित हुए और ग्रंथरहित होने से निर्ग्रन्थ हुए। जैसे काँसे के पात्र को पानी नहीं लगता, वैसे भगवान भी निर्लेप स्नेहरहित थे। जैसे शंख को रंग नहीं लगता, वैसे वे निरंजन थे। उन्हें किसी पर न तो राग था और न ही द्वेष, इसलिए वे राग-द्वेषरहित थे। जैसे जीव की गति में कहीं भी रुकावट नहीं आती, वैसे ही कहीं भी जाने में भगवान की गति का हनन नहीं होता था। याने कि भगवान को विहार करने में कोई रोक नहीं सकता था। जैसे आकाश निरालंब है, वैसे ही भगवान भी किसी का आधार लेते नहीं थे। वे हवा की तरह अप्रतिबद्ध-विहारी थे। उनका हृदय शरदऋतु के मेघ के समान निर्मल था। वे कमलपत्र की तरह निर्लेप थे। कछुए के समान उन्होंने अपनी इन्द्रियों का गोपन किया था। वे खड्गी जानवर के सींग की तरह एकाकी थे। जैसे पक्षी अपने पास कोई परिग्रह नहीं रखते, वैसे ही भगवान भी अपने पास कोई परिग्रह नहीं रखते थे। वे भारंडपक्षी की तरह अप्रमत्त, हाथी की तरह कर्मरूप शत्रुओं का मथन करने में महापराक्रमी, वृषभ के समान संयमरूप भार वहन करने में सामर्थ्यवान, सिंह की तरह परीषह जीतने में दुर्द्धर और मेरु के समान अचल अकंप थे। - वे समुद्र के समान गंभीर और चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यावान थे। सूर्य के समान उनका तेज प्रकाशमान था। तपाये हुए कुन्दन के समान वे जातरूप थे। वे पृथ्वी के समान सब स्पर्श सहन करने वाले थे। वे घी होमे