________________ . श्री कल्पसूत्र-बालावबोध . (223) था, वह कर्म यहाँ उनके उदय में आया। वह शय्यापालक अनेक भवभ्रमण कर अब गोपालक हुआ था। बैर के कारण उसने भगवान को अपने बैल सौंपे और स्वयं गाँव में गया। वहाँ से लौटने पर उसे अपने बैल दिखाई नहीं दिये। फिर रात भर घूम घूम कर उसने अपने बैलों को ढूंढा। सुबह जब भगवान के पास आया, तब उसे वहाँ अपने बैल दिखाई दिये। उस समय पूर्व भव के बैर के कारण उसके मन में द्वेष उत्पन्न हुआ। इससे उसने भगवान के कानों में खीले ठोंके और कोई देख न सके, किसी को मालूम न हो, इसलिए उन्हें बाहर से काट कर समान कर दिया। उसने ये खीले शरकट वृक्ष के अग्र काट कर कान में ठोंके। (शरकट वृक्ष के तीर बनते हैं।) इससे भगवान को महावेदना हुई और भगवान अत्यन्त कृश हो गये। . फिर भगवान, वहाँ से विहार कर मध्यम अपापा नगरी में सिद्धार्थ वणिक के घर गोचरी गये। वहाँ खरक वैद्य उपस्थित था। उसने मार्गानुसार से भगवान को सशल्य देखा। तब उसने सेठ से कहा कि भगवान को कोई व्यथा है। इस पर सेठ ने कहा कि यह व्यथा मिटाने का लाभ तुम क्यों नही लेते? फिर सेठ और वैद्य दोनों प्रभु के पीछे पीछे गये। वहाँ वैद्य ने विचार कर के दो सँडसे ले कर दो वृक्षों की डालियाँ रेशम से बाँध कर कान में रही हुई कील सँडसे से पकड़ कर रेशम की डोरियों से दोनों तरफ दो वृक्षों की डालों से बाँधा। फिर वे दोनों डालियाँ झुका कर एक ही समय में एक साथ उन्हें छोड़ा। इससे दोनों कानों के खीले तुरन्त एक साथ निकल गये। इस तरह बुद्धिप्रपंच से खीले तो निकाल दिये, पर उस समय प्रभु को इतनी तीव्र वेदना हुई कि उसके योग से प्रभु हाँक मार कर चीख पड़े। इससे जंगल में घोराकार शब्द हुआ। पर्वत फट गये। वे पर्वत वर्तमान में बंभणवाड़ गाँव के पास हैं। वहाँ बंभणवाड़ तीर्थ हुआ। प्रभु मूर्च्छित हो कर धरती पर गिर गये। लोग कहते हैं कि उन्हें दो पुरुषों ने उठा कर बिठाया, पर तीर्थंकर के लिए यह संभव नहीं है। इस पर से अनुमान करते हैं कि काया के व्यापार से हाँक हुई होगी, पर भाव से