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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (221) हमारा आचार है। तब चन्दना ने कहा कि यह मुझसे नहीं होगा। तो भी वेश्या उसे जबरदस्ती मोल लेने लगी। तब शासनदेवी ने उसके कान और नाक छेद डाले। वेश्या वहाँ से भाग गयी। - फिर जैनधर्मी धनावह सेठ मूल्य दे कर खरीद कर उसे अपने घर ले गया और उसका नाम चन्दना रख कर उसे अपनी पुत्री के रूप में रखा। चन्दना का सुरूप देख कर सेठ की फूहड़ और बाँझ पत्नी मूला उससे द्वेष करने लगी। उसने सोचा कि कहीं यह मेरी सौत न बन जाये, इसलिए पहले से ही कुछ उपाय करना ठीक होगा। फिर एक दिन सेठ के पैर धोते वक्त चन्दना की वेणी जमीन पर गिर पड़ी। सेठ ने उसे भीगने से बचाने के लिए अपनी छड़ी से ऊपर उठा लिया। यह देख कर दुराचारिणी मूला सोचने लगी कि सेठ इसकी वेणी पर मोहित हुआ लगता है। मुख से तो इसे पुत्री कहता है, पर कालान्तर में इसे स्त्री बना देगा। इसमें कोई शक नहीं है, क्योंकि मैं तो अब बूढ़ी हो गई हूँ और यह रूपवती है। फिर एक दिन सेठ के अन्य गाँव चले जाने पर मूला ने चन्दना का मस्तक मूंड कर, उसके हाथ-पाँव में बेड़ियाँ डाल कर और उसे धुस्से का वस्त्र पहना कर उसे कंडों के कमरे में बन्द कर दिया। फिर अपने घर को ताला लगा कर वह अपने पीहर चली गयी। चन्दना उस कमरे में बैठी बैठी नवकार गिनने लगी और अपने कर्म को दोष देने लगी। चौथे दिन सेठ घर लौटा, तब चन्दनबाला उसे दिखाई नहीं दी। उसने पड़ोसियों से भी पूछा,पर उस झगड़ालू मूला के डर से किसी ने भी उत्तर नहीं दिया। अन्त में एक बुढ़िया ने सब बातें बता दीं। फिर सेठ ने ताला खोल कर चन्दना को बाहर निकाला। उसे देहली पर बिठा कर उसने कहा कि मैं लुहार को बुला लाता हूँ, वह तेरी बेड़ियाँ खोल देगा। तब चन्दना ने कहा कि मैं बहुत भूखी हूँ। फिर सेठ ने उड़द के बाकुले सूप के एक कोने में रख कर उसे दिये और कहा कि तू तीन दिन से भूखी है, इसलिए ये बाकुले खाना। मैं बेड़ी निकालने के लिए लुहार को बुला लाता हूँ। यह कह कर चन्दना को पूर्वावस्था सहित देहली पर बिठा कर वह लुहार को बुलाने गया। अब शुद्ध सम्यक्त्वधारिणी चन्दना सती सोचने लगी कि कोई अतिथि आये, तो उसे यह वहोरा कर खाऊँ। इतने में मध्याह्नकाल होने पर प्रभु पधारे। उन्हें देख कर चन्दनबाला हर्षित हो कर उन्हें बाकुले देने लगी, पर भगवान ने अपने लिए हुए अभिग्रह के चार भेद तो मिलते देखे, पर पाँचवाँ रुदन नहीं देखा, इसलिए वे लौट गये। तब चन्दना अत्यन्त दुःखी हो कर रुदन करने लगी कि साधु भी मेरे हाथ का
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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