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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (215) कर पुनः अपनी जटा में रख रहा था। उसे देख कर गोशालक बोला कि अरे ! त केवल जॅओं का ही शय्यातर है या तापस मुनि? ऐसा हास्य-वचन उसने दो-तीन बार कहा। तब वेश्यायन को क्रोध आ गया। उसने गोशालक पर तेजोलेश्या छोड़ी। उसे देख कर भगवान को करुणा आ गयी। उन्होंने उसके सामने शीतलेश्या छोड़ी। इससे गोशालक नहीं जला। तापस ने भी भगवान का प्रभाव जान कर खमाया। फिर गोशालक ने भगवान से पूछा कि तेजोलेश्या कैसे प्राप्त होती है? इसका उपाय बताइये। तब भगवान ने कहा कि बेले की तपस्या करे याने कि छट्ठ तप कर के पारणे में एक मुट्ठी उड़द के बाकुले खा कर उस पर एक अंजुलि भर उष्ण पानी पीये और सूर्य के सम्मुख खड़ा रहे। इस प्रकार छह महीने तक करे, तो उसे अन्त में तेजोलेश्या प्राप्त होती है। (कई लोग कहते हैं कि सिद्धार्थ व्यन्तर ने यह विधि बतायी।) गोशालक ने यह सामान्य विधि धारण कर ली। - अब भगवान जब कूर्मगाँव से पुन: सिद्धार्थपुर लौट रहे थे, तब रास्ते में पूर्वोक्त तिल के पौधे को ऊगा हुआ स्तम्भ रूप देख कर गोशालक ने उसे चीरा। तब उसमें सात पुंज तिल दिखाई दिये। तब सब सत्य मान कर गोशालक ने सोचा कि जो होने वाला है, वह अवश्य होता ही है। होनी हो कर ही रहती है। इस तरह मान कर वह निश्चयवादी हुआ। उसने इस मत का निर्धार कर लिया। - इसके बाद गोशालक भगवान से अलग हो गया। उसने श्रावस्ती नगरी में जा कर तेजोलेश्या साध ली। उसे वह सिद्ध हो गयी तथा दिशाचरों के पास उसने अष्टांगनिमित्त सीख लिया। फिर यद्यपि वह जिन याने तीर्थंकर नहीं था, तो भी तीर्थंकर नाम धारण कर लोगों को अपना सिद्धत्व दिखाने लगा। इसके बाद वह श्रावस्ती नगरी में भ्रमण करने लगा। भगवान भी विचरते-विचरते श्रावस्ती नगरी पहुँचे और वहाँ उन्होंने दसवाँ चौमासा किया।।१०।। उन्होंने अनेक प्रकार के तप किये।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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