________________ (212) . श्री कल्पसूत्र-बालावबोध / प्रभु के प्रमाणातीत पूर्वकृत कर्म थे, जिन्होंने यहाँ आ कर बाधा डाली। कठिन उपसर्ग सहन कर भगवान ने वे कर्म दूर किये। व्यन्तरी के उपसर्ग में प्रभु अडिग रहे। ऐसे धैर्यवान प्रभु को जान कर अपना अपराध खमा कर वह व्यन्तरी अपने स्थान पर गयी। यहाँ शीतवेदना सहन करते हुए प्रभु को छट्ट के तप में यथार्थ लोकावधिज्ञान उत्पन्न हुआ। गोशालक पुनः प्रभु से आ मिला भगवान ने छठा चौमासा पुनः भद्रिकानगरी में किया। वहाँ चार महीने तक अनेक प्रकार के दुःसह अभिग्रह किये। छह महीने तक अन्यत्र भटक कर गोशालक यहाँ प्रभु से पुनः आ मिला।।६।। चौमासा पूरा होने के बाद शेषकाल आठ महीने तक भगवान मगध देश में विचरे। इन आठ महीनों में भगवान को कोई भी उपसर्ग नहीं हुआ। ___ फिर सातवें चौमासे में भगवान आलंभिका नगरी के बाहर देवकुल में चार मासी तप कर के रहे।।७।। यहाँ गोशालक ने बलदेव की प्रतिमा के मुख में लिंग रखा। यह देख कर लोगों ने उसे बहुत मारा। (किसी प्रति में ऐसा भी लिखा है कि बलदेव की मूर्ति पर पुरुषचिह्न रख कर सोया, इसलिए पुजारी ने मारा।) वहाँ से विहार कर प्रभु मर्दनग्राम में वासुदेव के मंदिर में काउस्सग्ग में रहे। यहाँ भी गोशालक ने मूर्ति पर पुरुषचिह्न रखा, इसलिए मार खायी। वहाँ से प्रभु जब उन्नाग गाँव जा रहे थे, तब रास्ते में कोई एक व्यक्ति नवपरिणीत वधू को अपने साथ ले जा रहा था। वर के दाँत बाहर निकले हुए और बड़े थे और बहू कानी थी। यह देख कर गोशालक हँस कर बोला कि दैव ने यह बिल्कुल ठीक बराबर की जोड़ी मिला दी है। तब दूल्हे ने गोशालक को मार-कूट कर बाँस की झाड़ियों में फेंक दिया। एक बार विचरते हुए भगवान पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में काउस्सग्ग में रहे। उस समय उस नगर का वग्गुर सेठ अपनी सुभद्रा भार्या के साथ वहाँ पहुँचा। दोनों पति-पत्नी ने पुत्रप्राप्ति के लिए