________________ (198) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध दारिद्र्य नष्ट कर मेरे मनोरथ पूर्ण कीजिये। आप मन में यह न लायें कि वार्षिकदान के अवसर पर सब लोग मनवांछित दान पा गये और यह कुछ भी क्यों नहीं पा सका? आप ऐसा विचार मन में न लायें। कारण स्वामिन् ! कनकधाराभिस्त्वयि सर्वत्र वर्षति। अभाग्यच्छत्रसंछन्ने, मयि नायान्ति बिन्दवः।।१।। हे स्वामिन् ! आप कनकरूप धारा से सर्वत्र बरसे, पर मेरे मस्तक पर अभाग्यरूप छत्र तना हुआ था, इसलिए एक बिन्दुमात्र भी मेरे सिर पर नहीं गिरा। तब मैंने सोचा रे मन अप्पा खंति धर, चिन्ताजाल म पाड। फल तित्तोहिज पामिये, जित्तो लिख्यो लिलाड।।१।। यह सोच कर बैठा रहा। पर हे स्वामिन् ! एक तो आपका दान नहीं मिला और फिर आपके दान का वृत्तान्त सुन कर उल्टे मुझे मेरी स्त्री ने घर से निकाल दिया। कहा भी है कि त्वयि वर्षति पर्जन्ये, सर्वे पल्लविता द्रुमाः। . अस्माकमर्कवृक्षाणां, पूर्वपत्रेषु संशयः।।१।। हे स्वामिन् ! आपरूप मेघ बरसने पर सर्वजनरूप वृक्ष नवपल्लवयुक्त हुए और मेरे जैसे अर्कवृक्षों को पूर्वपत्रों का भी संशय हुआ। इत्यादि ललित पल्लवित वचन सुन कर कृपासागर भगवान ने विचार किया कि मैं निग्रंथ हूँ और मेरे पास कुछ भी नहीं है, पर ब्राह्मण को न देने से प्रार्थना का भंग होता है और प्रार्थना-भंग से लघुता प्राप्त होती है। कारण कि तण लहुअं तुस लहुअं, तण-तुस लहुअं च पत्थणा लहु। तत्तो वि सो लहुओ, पत्थणभंगो कअ जेण।।१।। सबसे लघु तृण है, उससे भी लघु तुष है तथा तृण और तुष से भी लघु प्रार्थना करने वाला याचक है और जो प्रार्थना का भंग करता है, वह सबसे लघु है। और भी कहा है किपरपत्थणापवत्ति, मा जणणी जणउ एरिसं पुत्तं।