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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (197) बोले कि हे काकुत्स्थ ! (रामचन्द्र !) एक धन का उपार्जन करो। इस संसार में धन से ही पुरुषों की शोभा है। मुझे निर्धन और मुर्दे में कोई अन्तर नजर नहीं आता। तुम जब पहले आये थे, उस समय निर्धन थे, इसलिए मैंने तुम्हारी ओर नहीं देखा और अब तो तुम सर्व विभूति सहित हो, इसलिए मैं सामने आया हूँ। उस स्त्री ने कहा कि हे मूर्ख ! तुझ जैसे धनरहित को मैं क्या करूँ? कहा भी है कि पुत्ता य सीसा य समं विभत्ता, रिसी य देवा य समं विभत्ता। मुक्खा तिरिक्खा य समं विभत्ता, मुआ दरिद्दा य समं विभत्ता।।१।। पुत्र और शिष्य इन दोनों को समान समझना। ऋषि और देव इन दोनों को समान समझना। मूर्ख और तिर्यंच इन दोनों को समान समझना। इसी प्रकार मरे हुए और दरिद्री इन दोनों को समान समझना। - अरे भाग्यहीन ! श्री वीर भगवान ने वार्षिकदान दे कर सब के दारिद्र्य-दुःख का नाश किया, उस समय तू परदेश गया। यह तो तेरे लिए दाख पकने के समय कौए की चोंच पकने जैसा हुआ अथवा नदी तट पर जवास के झाड़ जैसा तू हुआ। अथवा रात-दिन मेघ बरसने पर भी पलाशवृक्ष के पत्ते तीन ही होते हैं। इसलिए रे अनिष्ट ! पापिष्ट ! पांडुरपृष्ठ! तू यहाँ से चला जा। इत्यादिक निष्ठुर वचनों से निर्भर्त्सना कर गलहत्था दे कर मुझे घर से बाहर निकाल दिया। इसलिए... . आगे दारिद्र्य पीछे दारिद्र्य, डावे जमणे पासि। पंडियाणी मुज मारणं मांड्यो, तेणे हुं आयो नासी।।१।। हे स्वामिन् ! मेरे आगे दारिद्र्य चलता है और पीछे भी दारिद्र्य चलता है। इसी प्रकार मेरे चारों ओर दारिद्र्य चलता है। इसलिए ब्राह्मणी जब मुझे मारने लगी, तब मैं भाग कर आपके पास आ गया। ___मैने सोचा कि श्री वीरप्रभु अगम्य गतिवन्त हैं। यद्यपि उन्होंने दीक्षा ली है, तो भी परम कृपालु हैं। इसलिए मुझे अवश्य ही कुछ देंगे। यह सोच कर प्रतीतिपूर्वक निर्धार कर के मैं आपके पास आया हूँ। इसलिए मेरा
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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