SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (194) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध जैसे कोई दरिद्री पुरुष धन कमाने के लिए परदेश जाने लगा, तब उसने दारिद्र्य से कहा कि रे दालिद्द वियखण, वत्ता इक्क सुणिज्ज। हम देसांतर चल्लिया, तू थिर घेर रहिज्ज।।१।। याने कि हे दारिद्र्य ! हे विचक्षण ! तू मेरी एक बात सुन। अब मैं देशान्तर जा रहा हूँ, इसलिए तू घर में ही स्थिर रहना। उसके ऐसे वचन सुन कर दारिद्र्य ने कहा पडिवन्नो गिरुआतणो, अविहड जाण सुजाण। तुम देसांतर चल्लिया, तो हम आगेवान।।२।।। हे भाई ! सुन। मैं बड़े का विनय नहीं छोड़ेंगा, क्योंकि उत्तम पुरुष.जो अंगीकार करते हैं, वह अविचल और जीवनभर के लिए होता है। यदि तुम देशान्तर जाओगे, तो मैं भी आगेवान हो कर तुम्हारे साथ आगे ही आगे चलूँगा। वैसे ही हे अभागे ! तेरे पीछे भी इसी प्रकार दारिद्र्य लगा हुआ है। तू अब घर में आया है, पर घर में तो कुछ भी नहीं है। न तो खाने के लिये अन्न है और न पीने के लिये पानी ही। मैं भूखी मरती बैठी हूँ। तेरे लिये खाना कहाँ से लाऊँ? घर में तो साग में डालने के लिए नमक-मिर्च भी नहीं है। क्योंकि जिण घर भैंस न रीके पाडो, जिण घर बलद न दीसे गाडों जिण घर नारी न चूड़ी खलके, तिण घर दारिद्र लहेरे लहेके।।१।। जिस घर में भैंस सहित पाड़ा रेंकता नहीं है, जिस घर में बलद और छकड़ा दीखता नहीं है और जिस घर में औरत के हाथ में चूड़ी खनकती नहीं है, उस घर में दारिद्र्य की लहरें चलती है। इसलिए तू घर में मत आना। यदि आयेगा तो भूखा मरेगा। अरे दरिद्री ! अब भी तू भगवान के पास जायेगा, तो कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा। स्त्री के ऐसे वचन सुन कर वह ब्राह्मण भगवान के पास आया और दोनों हाथ जोड़ कर हीन स्थिति दिखाते हुए पाँव पड़ कर दीन वचन से बोला कि हे कृपानाथ ! हे परदुःखभंजक ! हे परमार्थ करने वाले ! हे मेरे मित्र के पुत्र ! हे दारिद्र्यबल के छेदक ! आप मेरी विनती शुरु से सुन कर मुझे पार लगाइये।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy