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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (173) 35. तत्तो तावे तेले- तप-जप करते हुए तु किसी के आक्रोश वचन सुन कर तप्त तेल की तरह गरम मत होना। 36. थथ्था थै रखवाली- कदापि तेरा मन वश न हो सके, तो भी वचन और काया को तो स्थिर रखना। 37. दद्दीयो दीवटोसमकित (दर्शन) रूप दीपक को अपने हृदय मंदिर में रखना तथा दया, दमन और दान की अभिलाषा रखना। 38. धद्धियो धाणको- तू धन कमाने का अर्थात् परिग्रह बढ़ाने का ध्यान मत रखना। केवल धर्मध्यान अपने हृदय में रखना। 39. ननीयो पुलायरो- तू नास्तिक मति अंगीकार कर अपने हृदय में समकित को पोला याने पतला मत बनाना। 40. पप्पा पोली पाटे- पाँच इन्द्रियों के आस्रवद्वार पाप के आगमन की पोल याने प्रवेशद्वार हैं। उन्हें संवररूप किंवाड़ लगा कर बन्द रखना। उन्हें पोले याने शिथिल मत रखना। अठारह पापस्थानकों का प्रचार उनमें प्रवेश न कर सके, इसलिए उन्हें दृढ़ मजबूत बन्द रखना। 41. फफ्फा फगड़े जोड़े- जल्लाद, अशुद्ध, अविनीत, अनाचारी के साथ बिना कारण संबंध मत रखना। उनकी संगति से दूर रहना। 42. बब्बामाहे चांदणुं- बोधिबीज बढ़ाते रहना। जैसे-जैसे बोध बढ़ता. जायेगा, वैसे वैसे हृदय में ज्ञानरूप चान्दणुं याने चन्द्रमा प्रकट होगा। 43. भन्भो भारी भैसको- जैसे भैंस हरी-सूखी घास खा कर मोटी होती है, वैसे तू भी बाईस अभक्ष्य और बत्तीस अनन्तकाय याने कि कन्दमूलादिक का भक्षण कर के पेट से भारी मत होना। कदापि देवादिक आ कर. डिगायें तो भी मत डिगना। प्रतिज्ञा का भंग मत करना। अर्हन्नक श्रावक के समान दृढ़ता रखना तथा व्रत नियमादि का पालन करते हुए मन में अभिमान मत रखना। पुनः कहते हैं.. भभीयो भाट चूलेतरो- जैसे चूल्हे का भाड़ धधकता रहता है, वैसे तू किसी के आक्रोश-असह्य मर्मबेधी वचन सुन कर अन्तरंग हृदय में क्रोधरूप अग्नि से धधकते मत रहना याने कि क्रोधाग्नि को गले मत लगाना। 44. ममयीयो मोचक- आठ कर्म को छोड़ देना। महान मोक्षमार्ग का आदर करना / 45. ययीयो जाड़ो पेटको- इस संसार में यम याने कृतान्त का पेट बहुत बड़ा है। वह सर्व जगत का ग्रास करता है, फिर भी उसका पेट नहीं भरता। इसलिए अपने हृदय में उसका भय रखना और धर्म में आलस मत करना। 46. रायरो कटारमल्ल- राग और द्वेष ये दोनों महामल्ल हैं। राग दो प्रकार का है- एक प्रशस्त राग और दूसरा अप्रशस्त राग। इन दोनों मल्लों को जीतेगा, तो कर्म से हल्का हो कर केवलज्ञान प्राप्त कर अक्षयपद याने मोक्षपद का भोगी बनेगा।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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