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________________ (172) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध देगा। 19. अमीयां बे रासडी- फिर उन्हें संवर और निर्जरारूप दो रासें लगा कर गाड़ी शिवपुर नगर की ओर चलाना। 20. कक्को केवड़ो- केवलज्ञानरूप मार्गदर्शक के बिना सिद्धनगर पहुँचा नहीं जा सकता और केवलज्ञान अनाहार मार्ग से उत्पन्न होता है, इसलिए 21. खक्खो खाजलो- तू चार प्रकार के आहार में आसक्त मत होना- रसनेन्द्रिय-लंपट मत बनना। 22. गगा गोरी गाय वीयाणी- अनाहारक तपादि मार्ग बताने वाले गुरु का बहुमान करना- भक्ति करना। गुरु महाउपकारी हैं। संसारसमुद्र पार करने के लिए बोधिबीज और धर्म का आलंबन आदि गुरु से मिलता है, इसलिए गुरु का गौरव करना। 23. घघो घरट पलाण्यो जाय- अरे जीव ! तू घर के धंधे से आरम्भ-समारंभ के भार से दिन-रात दबा हुआ रहता है। उस भार से तुझे गुरु ही छुड़ायेंगे। 24. ननीयो आमणदूमणो- घर का भार छुड़ाने के लिए गुरु पाँच अणुव्रत और पाँच महाव्रतरूप अभिग्रह नियमादि अंगीकार कराते हैं, उनके पालन में आमणदूमण याने भग्नचित्त हो कर पश्चात्ताप मत करना। 25. चच्चा चीनीचोपड़ी- गुरुदत्त चारित्रधर्म के पालन का चित्त में चोपउत्साह रखना। 26. छच्छा वदिया पोटला- छद्मस्थ अवस्था में गुरु के समीप श्रुतज्ञान-चौदह पूर्व के ज्ञान का पोटला बाँधना अर्थात् ज्ञान का अभ्यास बहुत करना। 27. जज्जो जेसलवाणीउं- तेरे अन्तरंग में जो निदानशल्य, मायाशल्य और मिथ्यात्वशल्य हैं, उन्हें दूर करने का वणिज-व्यापार करना। 28. झझो झारी सारिखो- तू झारी जैसा स्वभाव रखना। झारी का मुख संकरा और पेट चौड़ा होता है। तू भी तेरा पेट बड़ा रखना और मुख से किसी के भी दोष (मर्म) प्रकट मत करना। इस प्रकार मुख को सँकरा रखना। 29. अञीयो खांडो चांदो- यहाँ आधा चन्द्रमा यह अर्थ लेना। सिद्धशिला अर्द्धचन्द्राकार है। वहाँ जाने के लिए निरन्तर साधन (प्रयत्न) करना। 30. टट्टो पोलिखांडेषु- गुरुसाक्षी से लिये हुए व्रत-नियमादि का भंग मत करना अर्थात् पच्चक्खाण की पोल (दरवाजा) को मजबूत रखना। 31. ठट्ठा ठोबर गाडुओ- तू फूटे घड़े जैसा मत होना। गुरु द्वारा दी गयी श्रुतशिक्षा को हृदयघट में संग्रह कर के रखना। 32. डड्डा डामरगांठे- तू बाह्य आडंबर से अभ्यन्तर कर्म की गाँठ से मत बँधना। 33. ढड्डा सुणो पूंछे- तू सुणो याने कुत्ते की पूँछ की तरह अपना स्वभाव वक्र (टेढ़ा) मत रखना। अपना स्वभाव सरल रखना। 34. राणो ताणो सेले- मोहराणा के साथ युद्ध करते समय ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तीन गुप्तिरूप तीन सेल-भाले (कुन्तास्त्र) हाथ में रखना।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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