________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (167) पाँच वर्ष तक पत्र का लालन करना चाहिये। वह जब दस वर्ष का हो जाये, तब उसे नियंत्रण में रखना चाहिये तथा जब वह सोलह साल का हो जाये, तब उसके साथ मित्र जैसा बर्ताव करना चाहिये।।१।। यदि पुत्र को पढ़ाये नहीं, तो माता उसकी वैरिणी है और पिता उसका शत्र है। क्योंकि यदि वह नहीं पढेगा तो जैसे हंसों की पंक्ति में बगुला सुन्दर नहीं दीखता; वैसे ही पंडितों की सभा में वह भी शोभायमान नहीं होगा। ऐसा विचार कर शुभ मुहूर्त देख कर शुभ दिन स्वजन क्षत्रियों को जीमा कर, वस्त्राभरण प्रदान कर, केसर-कस्तूरी के छींटे कर के हाथी, रथ, घोड़े सजा कर गीत वाजित्र सहित प्रभु के पाठशालागमन की महा महोत्सव पूर्वक तैयारी की। पाठशाला के बालकों में बाँटने के लिए गुड़धाणा, मेवा प्रमुख लिये। उनके नाम इस प्रकार हैं- वरसोला, गुंदवड़ा, खारिक, खोपरा, दाख, खजूर, सिंघोड़ा, अखरोट, बादाम, चारोली, नारियल, मिश्री, सेव, पेड़े,. फल-फूल, साकरीये चने, इलायचीपाक, धाना, गुड़-धानी, बीजोरा, चना, सोने की दवात, रत्नजड़ित कलम, चाँदी की पाटियाँ, पान के बीड़े इत्यादिक अनेक वस्तुएँ साथ में लीं। पंडितजी को देने के लिए वस्त्राभूषण भी लिये। सुहागन स्त्रियों ने गीत गाते हुए श्री वर्द्धमान को स्नान कराया और वस्त्राभूषणों से सजाया। फिर उन्हें हाथी पर बिठा कर मेघाडंबर छत्र-चामर सहित याचकों को दान देते हुए पाठशाला इसी विध शुभ लग्न समये, पाठशाला पद धरे; सर्व जनता थी उपस्थित, मुख से जय जय रव करे।।७।। चलित आसन इन्द्र पहुँचे, प्रश्न पूछे प्रभु कहे; वदे सुरपति कार्य अनुचित, त्रिजगपति ये वीर हैं। इन्हें विद्याभ्यास कैसा? ज्ञानधारी नाथ हैं; सर्व वस्तु भाव जानत, सकल इनके हाथ हैं।।८।। अल्पज्ञानी कोई पंडित, इन्हें क्या पाठन करे, हुआ अविनय क्षमा माँगो, इन्द्र यों मुख ऊचरे। तदा पंडित त्यक्त आसन, प्रभु चरण में सिर धरे; उच्च आसन बैठि जिनवर, शास्त्र सहु परगट करे।।९।।