________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (157) अब आया साकरिया सीरा, बुड्ढों का मन हुआ अधीरा।।२६।। -लाई अब उत्तम लापसी, छोटे मोटे इसी से धापसी। पकवान अनेका आवे, मेवे की खीचड़ी खावे।। 27 / / अब आई सुगंधी शाल, खाने को हो गये उजमाल। मूंग की दाल है भेली, सुगंधी स्वच्छ घृत ठेली।।२८।। खीचड़ी पातली अरु पोली, इकवीस की होत इक कोली। सालणां मुँह में भावे, जीभ पर पानी फिर आवे।।२९।। पकोड़े स्वादु वेसण के, बड़े भी मूंग की कण के। मसाले बहुत थे तीखे, इत्यादि सब बने घी के।।३०।। विविध जाति के व्यंजनादि मूंगीया केर रायडोडी, लाते हैं शाक दौड़ दौड़ी। वालोल करमदा काचा, नीला चणा मिरच में साचा।।३१।। पीपर अरु चवला की फलिये, साँगरी मूंग की कलियें। करेलां बावलिया भींडी, तोरई दूधिया, तींडी।।३२।। मोगरी काचरी लाना, कूमटिया फोग अरु धाना। रायता छाछ अरु दधि के, एक से एक थे अधिके।।३३।। खीचीया सारेबडा पापड़, पातले जैसे थे कापड़। इत्यादिक बहुत से साग, जीरा मिरचों का बहु लाग।।३४।। मसाला गर्म मिलवाये, घृत में पहिले तलवाये। हींग के वधार सुगंधा, खाते समय छोड़ दिये धंधा।।३५।। लेने को सामने जोवे, जीभ तो फरफरी होवे। चणा की मेथी की भाजी, चन्दलेवा पालखा साजी।।३६।। सुआ अरु चील की भाजी, वत्थुआ परजन से राजी। देगचाँ भर भर के दूध, भर भर के वाटके पीध।।३७।। अब तो भर गये पेट, डकारें आवती ठेठ। . शुद्ध पानी से चलु कीजे, न मावे पेट में उत्तर दीजे।।३८।।