________________ (156) -- श्री कल्पसूत्र-बालावबोध द्राख अरु आम खरबूजे, नारंगी अनार तरबूजे। सेव सहतूत अरु नींबू, खारक खजूर फिर जम्बू।।१४।। गूदा और पेमदी बेर, आन के कर दिये ढेर। ... छोल कर सेलड़ी लायी, मधुर रस सबके मन भाई।।१५।। सीताफल रामफल अधिके, जामफल बीजोरा बढ़के। इत्यादि बहुत किये भेले, सुस्वादु लाये फिर केले।।१६।। सभी के सामने पुरसे, चखतां चित्त बहु विकसे। मुख में मेल कर खावे, पेट का फिक्र नहीं लावे।।१७।। भोज्य पक्वान्नादि मालवी भूमि में उपजे, बहुत ही श्रेष्ठ गहुँ निपजे। पानीयुत हाथ से मसल्या, शुद्ध कर चक्की में दल्या।।१८।। वस्त्र इक मलमल को आण्यो, मेदो वह उसी से छाण्यो। घृतपक्व पुरसिया खाजा, दन्त में होत आवाजा।।१९।। लाय कर पुरसिये पकवान, जीमन को हो गये सावधान। अनेकों जाति के लाड़, मानो ज्यों जीमते साडू।।२०।। सिंह केसरिये मेले, मसाले अधिक ही भेले। कंसार मगद के मोदक, कीटीया दालीया शोधक।।२१।। ऐसे मोदक जो खावे, बुड्डा भी मर्द हो जावे। लाय कर पुरसी मुरकी, खाने को जीभ तब फुरकी।। 22 / / जलेबी मुँह में डाले, रस के गट्टके चाले। पेड़े जब पेट में पड़िये, मेलते मुँह में गुड़िये।।२३।। मखाना मुँह में डाले, बड़-बड़ वाक्य तब चाले। घेबर जब मुख में धरिये, चाखतां घृत बहु झरिये।।२४।। झीणा झीणा तार की फीणी, सेवाँ अब आणी है झीणी। देख देख दहीथरे खावे, मन में तो हँसते जावे।।२५।।. तिलों की साँकली खाधी, सिंगोड़े सेव से साधी।