SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (146) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध और मृत्तिकामय 8 इन आठ जातियों के प्रत्येक एक हजार आठ कलश जानना। सब मिल कर आठ हजार चौसठ कलश हुए। इन्द्र चतुर्वृषभ का रूप बना कर आठ सींगों से अभिषेक करता है तथा एक-एक सींग में आठ हजार चौसठ कलशों का जल होता है। इसलिए आठ से गुणा करने पर चौसठ हजार पाँच सौ बारह (64512) कलश होते हैं। ____ भवनपति के इन्द्रों के 20, व्यन्तरेन्द्र के 32, वैमानिकेन्द्र के 10, ढाई द्वीप के सब सूर्य-चन्द्रों के 132, धरणेन्द्र-भूतानेन्द्र की इन्द्राणियों के 12, चमरेन्द्र की इन्द्राणियों के 10, ज्योतिष्क की इन्द्राणियों के 4, सौधर्मेन्द्र की इन्द्राणियों के 8, ईशानेन्द्र की इन्द्राणियों के 8, व्यन्तरेन्द्र की इन्द्राणियों के 4 तथा सामानिक देवों का 1, त्रायस्त्रिंशक देवों का 1, लोकपाल देवों के 4, अंगरक्षक देवों का 1, पारिषद् देवों का 1, प्रजा के देवों का 1 और सात कटक के देवों का 1 इस प्रकार कुल मिला कर 250 अभिषेक होते हैं। एक एक अभिषेक में चौसठ हजार पाँच सौ बारह कलश होते हैं। उन्हें ढाई सौ से गुणा करने पर एक करोड़ इकसठ लाख अट्ठाईस हजार कलश हुए। एक-एक जाति का प्रत्येक कलश पच्चीस योजन ऊँचा, बारह योजन चौड़ा और एक योजन नाल वाला जानना। इसी प्रकार भुंगार, दर्पण, रत्नकरंडक, थाल, पात्रिका, पुष्पचंगेरी इत्यादि पूजा के उपकरण प्रत्येक में एक हजार आठ जानना तथा देव मागधादि तीर्थों के जल से, गंगाप्रमुख नदियों के जल से तथा पद्मद्रह के जल से कलश भर लाये। इसी प्रकार चुल्लहिमवन्त, वर्षधर, वैताढ्य, विजय, वक्षस्कार, देवकुरु, उत्तरकुरु, भद्रशाल और नन्दनवनप्रमुख के सब फल, प्रधान गंध, सर्व औषधिप्रमुख वस्तुएँ भी ले आये। फिर सब देव अपने अपने हाथ में कलश ले कर खड़े रहे। वे कैसे शोभायमान हैं? उन्हें देख कर ऐसा लगता 1. कल्पसूत्र सुबोधिका आदि कितने ही ग्रंथों में प्रत्येक जाति के एक एक हजार कलश कहे हैं। उस हिसाब से आठ जाति के आठ हजार कलश हुए। उन्हें आठ से गुणा करने पर 64,000 हुए हैं। उन्हें 250 अभिषेक से गुणा करने पर एक करोड़ साठ लाख कलश होते हैं। .
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy