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________________ भट्टारक श्रीराजेन्द्रसूरिकृता श्रीकल्पसूत्रस्य बालावबोधिनी वार्ता / / एक अध्ययन / / नेमीचन्द जैन / / मध्यकाल में संस्कृत, प्राकृत और मागधी में लिखे ग्रंथों की सरल टीकाएँ लिखने की परम्परा बनी। इसके कई स्पष्ट कारण थे। लोग इन भाषाओं को भूलने लगे थे और जीवन की अस्त-व्यस्तता के कारण इनसे सहज सांस्कृतिक सम्पर्क टूट गया था; अतः सहज ही ये भाषाएँ विद्वद्भोग्य रह गयीं और सामान्य व्यक्ति इनके रसावबोध से वंचित रहने लगा। वह इन्हें सुनता था, भक्ति-विभोर और श्रद्धाभिभूत हो कर, किन्तु उसके मन पर अर्थबोध की कठिनाई के कारण कोई विशेष प्रभाव नहीं होता था। 'कल्पसूत्र' की भी यही स्थिति थी। . मूलतः कल्पसूत्र श्रीभद्रबाहुसूरि (स्वामी) द्वारा 1216 श्लोकों में मागधी में लिखा गया है (प्र.पृ. 5) / तदनन्तर समय-समय पर इसकी कई टीकाएँ हुईं, जिनमें पण्डित श्री ज्ञानविमलसूरि की भाषा टीका सुबोध और सुगम मानी जाती थी, यह लोकप्रिय भी थी और विशेष अवसरों पर प्रायः इसे ही पढ़ा जाता था। जब श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि से 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका करने का निवेदन किया गया, तब उन्होंने यही कहा था कि पण्डित ज्ञानविमलसूरि की आठ ढालवाली टीका है, अतः अब इसे और सुगम करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर श्रीसंघ की ओर से आये हुए लोगों ने कहा : "श्रीपूज्य, इस ग्रंथ में थविरावली तथा साधुसमाचारी नहीं है, अतः एक व्याख्यान कम है तथा अन्य बातें भी संक्षेप में कही गयी हैं, अतः यह ग्रंथ अधूरा है। कहा भी है कि 'जो ज्ञान अधूरा है, वह ज्ञान नहीं है; जो आधा पढ़ा है, वह पढ़ा हुआ नहीं है; अधूरी रसोई, रसोई नहीं है; अधूरा वृक्ष फलता नहीं है; अधूरे फल में पके हुए फल की भाँति स्वाद नहीं होता, इसलिए सम्पूर्णता चाहिये।' आप महापुरुष हैं, परम उपकारी हैं, अतः श्रीसंघ पर कृपादृष्टि कर के हम लोगों की.अर्जी कबूल कीजिए।" (प्र.पृ. 6) / इसे सुन कर श्रीमद् ने श्रावकों के माध्यम से 4-5 ग्रन्थागारों में से काफी प्राचीन लिखित चूर्णि, नियुक्ति, टीकादि की दो-चार शुद्ध प्रतियाँ प्राप्त की और 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका का सूत्रपात किया। इसके तैयार होते ही कई श्रावकों ने मूल प्रति पर से कुछ प्रतियाँ
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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