SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (99) लहरें उठ रही हैं। उन लहरों के कारण पानी बहुत ही चंचल हुआ है। तथा मंद-मंद पवन से चलायमान हुई लहरें समुद्रतट पर आ कर टकरा रही हैं। उसका शब्द जिनमें हो रहा है, उन लहरों से समुद्र शोभित है। वे लहरें मिलीजुली दौड़ती हैं। एक लहर के पीछे दूसरी लहर भागती है। पहले एक छोटी लहर चलती है, फिर उसके पीछे बड़ी लहर चलती है। ऐसी लहरों की उसमें शोभा है। उस समुद्र में जलचर जीव कल्लोल कर रहे हैं। महामगरमच्छ, तिमिंगल मच्छ, लघुमच्छ आदि ये सब परस्पर मिल कर जब खेलते हैं, तब उनकी पूँछे हिलने से उछला हुआ जो पानी है, उसमें से झाग प्रकट हो कर वह लहरों के द्वारा बह कर किनारे पर आ गिरता है। उसके ढेर हो गये हैं। वे सब ढेर कपूर के ढेर के समान दीखते हैं। - उस समुद्र में गंगाप्रमुख नदियों का पानी मिलता है। उसमें चौदहचौदह हजार नदियों के परिवार के साथ गंगा और सिंधु ये दो भरतक्षेत्र की नदियाँ मिलती हैं। इसी प्रकार चौदह-चौदह हजार नदियों के परिवार के साथ ऐरवतक्षेत्र की रक्ता और रक्तवती ये दो नदियाँ मिलती हैं। अट्ठाईस अट्ठाईस हजार नदियों के परिवार के साथ रोहिता और रोहितासा ये दो नदियाँ हेमवन्तक्षेत्र की मिलती हैं। अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदियों के परिवार के साथ सुवर्णकूला और रूपकूला ये दो नदियाँ ऐरवतक्षेत्र की मिलती हैं। छप्पन्न-छप्पन्न हजार नदियों के परिवार के साथ हरिकंता और हरिसलिला ये दो नदियाँ हरिवर्षक्षेत्र की मिलती हैं। छप्पन्न-छप्पन्न हजार नदियों के परिवार के साथ नरकांता और नारीकांता ये दो नदियाँ रम्यक्षेत्र की मिलती हैं तथा पाँच-पाँच लाख के ऊपर बत्तीस बत्तीस हजार नदियों के परिवार के साथ सीता और सीतोदा ये दो नदियाँ महाविदेहक्षेत्र की मिलती हैं। कुल मिला कर चौदह लाख छप्पन्न हजार नदियों का पानी उस समुद्र में मिलता है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि सूत्र में तो ऐसा पाठ है कि क्षीरसमुद्र स्वप्न में देखा और आप तो नाना प्रकार की लहरों से बढ़ता हुआ जल कहते हैं तथा
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy